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________________ ३२६ हिन्दी जैन भक्ति-काम्य और कवि भगवान्की शोभा केवल बाह्य नहीं है, उनका अन्तः भी असाधारण रूपसे लस रहा है। उनकी जाप लगानेसे पाप-समूह नष्ट हो जाते है, और उनका ध्यान करनेसे शिव-थल प्राप्त हो जाता है । यह जीव बुराइयोमे फंसकर संसारके बड़े-बड़े दुःखोंको सहन करता रहा है, उसे सुख तो सरसोके समान भी नहीं मिला । भगवान्की भक्तिसे ही उसे मुख मिल सकता है। "अंतर बहिर इत्यादि लक्ष्मी, तुम असाधारण लसै। तुम जाप पापकलाप नास, ध्यावते शिवथल बसै ॥ मैं सेय कुदृग कुबोध अवत, चिर भ्रम्यो मव वन सवै । दुख सहे सर्व प्रकार गिरि सम, सुख न सर्षप सम कबै ॥" संसारके जीव विषय-कषायोमे निमग्न है। जो चेत जाता है, वह ही इस भवसमुद्रको तिर जाता है। अपनी विगत करनीपर पश्चात्ताप करना ही शिव-पथकी ओर बढ़ना है। यह पश्चात्ताप ही जीवको भगवान्के चरणोंमे ले जाता है और भक्तके अन्तःकरणसे यह ही लहर उठती है कि "हे भगवन् ! मुझे आपकी भक्तिके अतिरिक्त और कुछ भी वैभव नही चाहिए।" एतत् सम्बन्धी एक पद्य है, "परचाह दाह दहयो सदा, कबहूँ न साम्यसुधा चख्यो। अनुभव अपूरब स्वादु विन नित, विषय रस चारो भख्यो । अब बसो मो उर में सदा प्रभु, तुम चरण सेवक रहों। . वर भक्ति अति दृढ़ होहु मेरे, अन्य विभव नहीं चहों ॥ ५॥" भक्तको यह पूर्ण विश्वास है कि भगवान्को शरणमे जानेसे जन्म-मरणके कष्टोसे छुटकारा मिल जायेगा, "मंगल सरूपी देव उत्तम, तुम शरण्य जिनेश जी। तुम अधम तारण अधम, मम लखि मेट जन्म कलेश जी ॥" आरती बिहारीदासको लिखी हुई एक सरस आरती जयपुरके छावड़ोके मन्दिरमे विराजमान गुटका नं० ५० के पू० ४ पर अकित है। आरतो 'आतमदेवा'की की गयी है। "करों भारती प्रातमदेवा गुण परजाय अनंत अमेवा ।। जामैं सब जग वह जग माहीं बसत जगत में जग समा नाहीं॥
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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