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जैन मक्त कवि : जीवन और साहित्य
जखड़ी
विगत पृष्ठोपर यह लिखा जा चुका है कि जैन भक्ति-साहित्यमे जखड़ियोंकी परम्परा पुरानी है। हिन्दीके कवि भी लिखते रहे है। रूपचन्द, दौलतराम, भूधरदास, रामकृष्ण और जिनदासको जखड़ियां तो बहुत ही प्रसिद्ध है। 'जखड़ो'को हिन्दीका स्तोत्र कह सकते है । बिहारीदासने भी एक जखड़ीका निर्माण किया था। उसमे ३६ पद्य है। उसकी एक प्रति जयपुरके ठोलियोंके दिगम्बर जैन मन्दिरमे वेष्टन नं० ४८ मे सुरक्षित है। इसमे कुल ४ पन्ने है । इसको एक दूसरी प्रति जयपुरके ही बड़े मन्दिरके गुटका नं० ८० मे संकलित है। इस प्रतिपर रचना-संवत् १७५६ पडा हुआ है। इसका अर्थ है कि 'जखडी', 'सम्बोध-पंचासिका'से दो वर्ष पूर्व बन चुकी थी।
जखड़ीमे तीर्थक्षेत्रों, अकृत्रिम चैत्यों, कल्पवृक्षों, धवल-जयधवल और आचार्योकी वन्दना की गयी है । कतिपय पद्य इस प्रकार है,
"शिखरी देश के मध्य विराजै सम्मेदाचल वंदौं जी। कम काटि निर्वाण पहुंच्या बीस जिनेश्वर वंदौं जी ।। जम्बू शालमली वृक्ष वंदौं चैत्य वृक्ष सब वंदौं जी। रजत गिरि कुलाचल वंदौं कंचन गिरि सब वंदौं जी। अरिहंत सिद्ध सूर उपाध्याय साध सकल पद वंदौं जी।
जो सुमरथा सो भवदधि तिरया मेटो कर्म कुफंदा जी ॥" जिनेन्द्र-स्तुति ___ यह रचना 'बृहज्जिनवाणी संग्रह' (पृ० १२६ ) मे प्रकाशित हो चुकी है। इसमे भगवान् जिनेन्द्रके स्तुति-परक भावोंका प्रकाशन हुआ है। भक्त कवि भगवान्के उस रूपपर रीझा है, जिसमे वस्त्राभूषणका आडम्बर नही, अपितु मुद्रासे शान्ति बिखर रही है और दृष्टि नासाके अग्र भागपर स्थित है । भगवान्के चरण कमल-जैसे है। उनके नखोंसे करोड़ों सूर्योको प्रभा निकल रही है। उनपर देवेन्द्र, नाग और नरेन्द्रोंको मुकुट-मणियां झुक रही है,
"वस्त्राभरण विन शान्त मुद्रा, सकल सुर नर मन हरै। नासाग्रदृष्टि विकारवर्जित, निरखि छवि संकट हरै ॥ तुम चरण पंकज नख प्रमा, नभ कोटिसूर्य प्रभा धेरै। देवेन्द्र नाग नरेन्द्र नमत सु, मुकुट मणि धुति विस्तरै ॥"
१. ये पद्य ठोलियोके मन्दिरवाली प्रतिके माधारपर दिये गये हैं।