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________________ ३२४ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि अक्षर ग्यान न मोहि छंद भेद समझु नहीं।। बुध थोरी कीम होय माषा अक्षर बावनी ॥२॥" कविका कथन है कि नरभव प्राप्त करना अत्यधिक कठिन है। उसे व्यर्थ नहीं खोना चाहिए। यदि वह खो गया तो समुद्रमे राईकी भांति फिर प्राप्त न होगा । केवल पछताना ही हाथ रह जायेगा, "आतम कठिन उपाय पाय नरभव क्यों तजे। राई उदधि समानी फिर ढुढ नहीं पाइये ॥३॥ इ विधि नरमव को पाय विषै सुष सौरभ । सो सठ अमृत पोय हालाहल विष आचरै ॥४॥ ईश्वर भाषै यह नस्मव मति षोवै वृथा। फिर न मिलै यह देह पछताओ बहु होयगो ॥५॥" जीवको सावधान करते हुए कविने लिखा है कि तूने विषयोमे अपना मन लगा रखा है, आत्माका हित नहीं करता। थोडे-से सुखके लिए तू भवसमुद्रमे पड़ गया है। पाप-लहर तुझ कष्ट देती है। अतः धर्मरूपी जहाज पकड़कर, सुखपूर्वक इस भवसमुद्रसे पार हो जाओ, "जो दू विषयीन सौ लग्यौ मन माई रे। मातम हित न्ही हो ही चेत मन माई रे ॥२३॥ टूक सुष को मवदधि परौ मन माई रे। पाप लहर दुष दैहि चेत मन भाई रे ॥ पकरै धर्म जिहाज ज्यौ मन माई रे। सुषस्यो पार करै हि चेत मन भाई रे ॥२४॥" धर्मसे प्रेरित होकर जो जिनेन्द्रकी पूजा करता है, जिनेन्द्रके चरणोमें चित्त लगाता है, उसे मनवांछित फल मिलता है। जिनेन्द्रके द्वारा बताये गये शिवमार्गको जो थोड़ा भी जान पाता है और अन्तमे समाधिमरण करता है, उसे चतुर्गतिका दुःख नहीं भोगना पड़ता। "लागि धरम जिन पूजिये, सांच कहयो सब कोइ । चित्त प्रभु चरन लगाइयो, तब मन वांछित फल होइ ।।७३॥ सिव मारग जिन माषियो, किंचित जाणौ कोइ । मंति समाहि मरण करै चउ गइ दुष नहिं होइ ॥४४॥"
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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