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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
३२३ रामचन्द्रजो' की रचना की थी। तीसरे वे है जिन्होने १८१५ मे 'हरदौल चरित्र' लिखा था। चौथे प्रसिद्ध योगी हरिरामदासके मुख्य शिष्य थे। हरिरामदासके स्वर्गारोहणके उपरान्त वे उनकी गद्दीके अधिकारी भी हुए। उन्होने 'नीसाणी' नामको एक प्रौढ़ रचनाका निर्माण किया था, जो संवत् १८३५ के बादकी कृति है। अर्थात् ये सब उन्नीसवी शताब्दोके कवि थे।
पण्डित बिहारीदासका रचनाकाल अठारहवी शताब्दीका पूर्वाद्ध माना जा सकता है। श्री द्यानतरायका जैनधर्मको ओर झुकाव सं० १७४६ मे पण्डित बिहारोदासको प्रेरणासे ही हुआ था । अर्थात् इस समय तक वे विद्वत्ता-जन्य ख्याति प्राप्त कर चुके थे। अतः यह निश्चित है कि उनका जन्म अठारहवीं शताब्दीके प्रारम्भमे हुआ होगा। __बिहारीदासने 'सम्बोध पंचासिका', 'जखड़ी', 'जिनेन्द्र स्तुति' और 'भारती'का निर्माण किया था। ऐसा प्रतीत होता है कि द्याननराय उन्हीके विकसित रूप थे। सम्बोध पंचासिका
इसका दूसरा नाम 'अक्षर बावनी' है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति वि० सं० १८३२ को लिखी हुई दि० जैन मन्दिर बड़ोतके वेष्टन नं० २७२ गुटका नं. ५५ मे पृ० ३६-४० पर निबद्ध है। इसके अन्तमे कृतिका रचनाकाल वि० सं० १७५८ कात्तिक वदी १३ दिया हुआ है। इससे यह भी सिद्ध है कि बिहारीदास आगरेके रहनेवाले थे। जयपुरके बधीचन्दजीके मन्दिरमे विराजमान गुटका नं० १२८ मे भी इसको एक प्रति संकलित है। श्री दि० जैन मन्दिर कुँचा सेठ, दिल्लीके वेष्टन नं० ३११ मे इसकी एक हस्तलिखित प्रति मौजूद है । उसकी लिखावट उत्तम है । उसपर भी रचना सं० १७५८ ही दिया हुआ है।
इस कृतिमे ५० पद्य है । विविध ढालोमे इसकी रचना की गयी है । प्रारम्भमे कविने 'ऊँकार' मे बसे पंच परम पदकी वन्दना करके अपनी लघुता प्रदर्शित
__"ऊँकार मंझार पंच परम पद वसत है।
तीन भवन मैं सार वंदौं मन वच काय के ॥१॥ १. काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिकाकी १६०५ की खोज रिपोर्ट । २. डॉ. मोतीलाल मेनारिया. राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० ३०६ । ३. पण्डित प्रेमीकृत हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास, पृ०५८ । ४. ये उद्धरण बड़ौतवाली हस्तलिखित प्रतिसे लिये गये है।