SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७७ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य "आहे पुत्र कलत्र सुमित्र तणीय धणीय छह आथि । तेह मंझारि विचारि कहु कुण आवइ साथि ।। १८०॥" उनका कथन है कि आत्माके बिना यह शरीर किसी काम नही आता, जैसे सुगन्धके बिना पुष्प निरर्थक ही है : "आहे कुसुम असम परिमल लीमधउ कहु केहउ सार । आतम नइ नहीं लाम शरीरि न पुष्ट लगार ॥१८॥" अनेक जैन कवि ऐसे हुए है, जो एक ओर संस्कृत एवं प्राकृतके विशिष्ट विद्वान् थे, अर्थात् सिद्धान्त और तर्कशास्त्रके पारगामी तैराक थे, तो दूसरी ओर सहृदय भी कम न थे। उनका काव्य उनकी सहृदयताका प्रतीक ही है । कवि ज्ञानभूषणकी गणना ऐसे ही कवियोंमे की जाती है । १८. भट्टारक शुभचन्द्र (वि० सं० १५७३ ) ___ भट्टारक शुभचन्द्र पद्मनन्दिको परम्परामे हुए है । उनका क्रम इस प्रकार है : पद्मनन्दि, सकलकोत्ति, भुवनकोत्ति, ज्ञानभूषण, विजयकीत्ति और शुभचन्द्र' । इस भौति ये ज्ञानभूषणके प्रशिष्य और विजयकीत्तिके शिष्य थे। इन्होंने भट्टारक श्री ज्ञानभूषणकी प्रेरणासे ही वादिराजसूरिके पार्श्वनाथ काव्यको पंजिका टीका लिखी थी। भट्टारक शुभचन्द्रका समय सोलहवी शताब्दीका उत्तरार्द्ध और सतरहवींका पूर्वार्द्ध माना जाता है । उन्होंने सं० १५७३ मे आचार्य अमृतचन्द्रके समयसार कलशोंपर अध्यात्मतरगिणी नामकी टीका लिखी थी, और सं० १६१३ मे वर्णी क्षेमचन्द्रकी प्रार्थनासे 'स्वामीकात्तिकेयानुप्रेक्षा' की संस्कृत टीका की । अतः उनका रचनाकाल तो निश्चय रूपसे वि० सं० १५७३ से १६१३ तक माना ही जा सकता है । उनके जन्म और मृत्युके विषयमें कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका। ___ भट्टारक शुभचन्द्र अपने समयके गण्यमान्य विद्वान् थे। उनका संस्कृत भाषापर अधिकार था। उन्हे 'त्रिविधिविद्याधर' और 'षभाषाकविचक्रवर्ती की पदवियां मिली हुई थी। न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त, छन्द, अलंकार आदि विषयोंमें उनकी विद्वत्ता अप्रतिम थी। १. पाण्डवपुराणप्रशस्ति, अन्त भाग, श्लोक १६७-१७१, जैनग्रन्थप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम __ भाग, पृष्ठ ४६-५०। २. पं० नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास, पृष्ठ ३८३ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy