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________________ ७६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि "आहे कोटइ मोटा मोतीयनु पहिराव्यु हार । पहिरीयां भूषण रंगिन अंगि लगा रज भार ॥४८॥" कविने बालकके प्राकृतिक सौन्दर्यको विविध उपमानोके द्वारा अंकित किया है। उसका मुख पूर्णमामीके चन्द्र के समान है। अनपम है। संसारके किसी पदार्थसे उसकी तुलना नहीं की जा सकती। उसके हाथ कल्पवृक्षको शाखके समान है और वे घुटनो तक लम्बे है, अर्थात् उस बालकके महापुरुष होनेको सूचना देते है, "आहे मुख जिसु पूनिम चंद नरिंदन मित पद पीठ । त्रिभुवन भवन मझारि सरीखउ कोई न दीठ ॥ माहे कर सुरतरु वरं शाख समान सजानु प्रमाण । तेह सरीखउ लहकहीं भूप सरूपहिं जाणि ॥१४४,१४६॥" काव्य-सौन्दर्य कविकी कल्पनापर निर्भर करता है। वह जितनी उर्वरा होगो, सौन्दर्य उतना ही अधिक होगा । यहाँ उसकी कमी नहीं है । बालकके नेत्र कमल-दलके समान है, अर्थात् कमलके पत्तो-जैसे दीर्घायत और सुन्दर है । बालककी वाणीमे कोमलता है । बालक केवल बाह्य सौन्दर्यसे ही नहीं, अपितु आन्तरिक गुणोसे भी युक्त है। उसमे समूचे गुण इस भांति भरे हुए है, जैसे मानो शरद्कालीन सरोवरमे निर्मल नीर भरा हो, "माहे नयन कमल दल सम किल कोमल बोलइ वाणी। __शरद सरोवर निरमल सकल अकल गुण खानि ॥१४५॥" इसी भांति कविने भगवान्के निरन्तर बढ़नेका वर्णन किया है । आदीश्वर दिन-दिन इस भाँति बढ़ रहे है, जैसे द्वितीयाका चन्द्र प्रतिदिन विकसित होता जाता है । उनमें शनैः-शनैः ऋद्धि, बुद्धि और पवित्रता प्रस्फुटित होती जा रही है, जैसे समाधिलतापर कुन्दके फूल खिल रहे हों, "भाहे दिन-दिन बालक बाधइ बीज तणु जिम चन्द । रिद्धि विबुद्धि विशुद्धि समाधिलता कुल कुंद ।।९२॥" यौवन आनेपर आदीश्वर सम्राट् बने । एक दिन उनके दरबारमे नीलांजना नामकी नर्तकी नृत्य करते-करते ही दिवंगत हो गयो । सम्राटके हृदयमे वैराग्यका भाव उदय हुआ। वे सोचने लगे, आयु कमल-दलके समान चंचल है तथा यौवन और धन करतलके नीरकी भांति अस्थिर है । पुत्र, कलत्र और सुमित्रसे मोह होता है, किन्तु विचार तो यह करना है कि मरते समय कौन साथ देता है, "माहे आयु कमल दल सम चंचल चपल शरीर । यौवन धन इव अथिर करम जिम करतल नीर ॥१६॥'
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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