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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
भट्टारक सकलकीर्ति, वि० सं० १४४४ में, ईडरकी गद्दीपर आसीन हुए थे । वि० सं० १४९९ में, महसाना ( गुजरात ) में उनका स्वर्गवास हुआ । हिन्दीके लिए भी उन्होने जो कुछ प्रयास किया, उसीके फलस्वरूप उनके शिष्य ब्रह्म जिनदास हिन्दी के उत्तम साहित्यकार बन सके ।
भट्टारक सकलकीर्तिकी हिन्दीमे लिखी हुई पांच कृतियाँ 'आराधनाप्रतिबोधसार', 'णमोकारफलगीत', नेमीश्वरगीत', और 'सोलहकारणव्रतरास ! ।'
आराधनाप्रतिबोधसार
इसकी भाषा सरल है । उसमे प्रसादगुणका निर्वाह हुआ है । कविने जिनवाणी, गुरु और निर्ग्रन्थ साधुओंको प्रणाम करके, संक्षेपमें आराधनासार कहा है । इसमे संस्कृत आराधनाका सार है । जो कोई नर-नारी इस आराधना सारको कहता और सुनता है वह भव-समुद्रसे पार हो जाता है । यह आराधना मनुष्योंको ज्ञान प्रदान करती है ।
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उपलब्ध हुई हैं: 'मुक्तावलो गीत '
णमोकारफलगीत
णमोकार मन्त्र पंचपरमेष्ठी की वन्दना से सम्बन्धित है । प्रस्तुत कृतिमें णमोकार मन्त्रका फल दिया हुआ है। यह एक गीति-काव्य है, उसके प्रत्येक पद्यमें उत्तम भाव उच्छ्वसित हुआ है । भाषामें प्रसादगुण है ।
नेमीश्वरगीत
यह गीत जयपुरके पं० लूणकरजीके मन्दिर, गुटका नं० ९६ और वेष्टन नं० ३३८ मे निबद्ध है ।
१. श्रीजिनवरवाणी नमेवि गुरु निर्ग्रन्थ पाय प्रणमेवि । कहुं आराधना सुविचार संक्षेपि सारोद्धार ॥ श्रीरशास्त्र भण्डारकी हस्तलिखित प्रति, पहला पद्य । २. जे भणई सुणई नरनारि, ते जाईं भवि नेइ पारि । श्री सकलकीति कह्यु विचार आराधना प्रतिबोधसार ॥ वही, अन्तिम पद्य ।
३. दि० जैन पंचायती मन्दिर बडौनके एक गुटके में निबद्ध ।
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मुक्तावलीगीत
यह गीत, जयपुरके बड़े मन्दिरके गुटका नं० ३६, वेष्टन नं० २४५७ में प्रस्तुत है ।