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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि ९. भट्टारक सकलकीति (वि० सं० १४९९)
सरस्वती गच्छके श्री पद्मनन्दी एक प्रभावशाली भट्टारक थे । वे भट्टारक रत्नकोत्तिके देहली-पट्टपर, वि० सं० १३७५ मे प्रतिष्ठित हुए थे। उनकी प्रशंसा विजौलियाके शिलालेखों (वि० सं० १४६५ और १४८६) मे अंकित है । उनके दो शिष्य थे-भट्टारक शुभचन्द्र और भट्टारक सकलकीत्ति । सकलकोत्ति से ईडर को भट्टारकीय गद्दीकी परम्परा आरम्भ हुई थी।
भट्टारक सकलकीत्ति अपने समयके एक प्रसिद्ध विद्वान् थे। उनका संस्कृत भाषापर एकाधिपत्य था। उन्होंने संस्कृतमे १७ ग्रन्थोको रचना की : पुराणसार, सिद्धान्तसारदीपक, मल्लिनाथचरित्र, यशोधरचरित्र, वृषभचरित्र, सुदर्शनचरित्र, सुकुमालचरित्र, वर्धमानचरित्र, पार्श्वनाथ पुराण, मूलाचार प्रदीप, सारचतुर्विशतिका, धर्मप्रश्नोत्तरश्रावकाचार, सद्भाषितावली, धन्यकुमारचरित्र, कर्मविपाक, जम्बूस्वामीचरित्र, श्रीपालचरित्र । ___भट्टारक सकलकोत्ति प्रतिष्ठाचार्य भी थे। उन्होने सैकड़ों मन्दिर बनवाये, मूत्तियोंका निर्माण करवाया और उनके प्रतिष्ठादि महोत्सव, स्वयं आचार्य बनकर सम्पन्न किये। उनके द्वारा प्रतिष्ठित मूत्तियोंमे, तत्कालीन इतिहासकी अनेक बातें अंकित है।
सकलकोत्तिका समय विक्रमकी १५वीं शताब्दीका उत्तरार्ध माना जाता है । उन्होंने संघसहित, वि० सं० १४८१ में, बडालीमे चतुर्मास किया था। वहांपर ही उन्होंने श्रावण शुक्ला पूर्णिमा, वि० सं० १४८१ को 'मूलाचार प्रदीप'को अपने कनिष्ठ भ्राता जिनदासके अनुग्रहसे पूरा किया।
१. जनग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, दिल्ली, पृष्ठ १६ । २. जैनग्रन्थ प्रशस्ति मंग्रह, प्रथम भाग, प्रस्तावना पृ० ६-१०। ३. तिहि अवसरे गुरु आविया, बडाली नगर मझार रे,
चतुर्मास तिहां करो शोभनो, श्रावक कीघा हर्प अपार रे, अमीझरे पधरावियां, बधाई गावे नर नार रे।। सकल संघ मिलि बन्दिया, पाम्या जयजयकार रे ॥ संवत् चौदह सौ क्यासो भला, श्रावणमास लसंतरे, पूर्णिमा दिवसे पूरण कर्या मूलाचार महंत रे । भ्राताना अनुग्रह शकी कीघा ग्रन्थ महान रे ।। वही, पृ० १०॥