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जैन भक्ति काव्यका भाव-पक्ष
कोई पारखी निहारकर देखे तो उसे जेन बैन और अन्य बैनोमे स्पष्ट अन्तर दिखाई देगा ।"
"कैसे करि केतकी कनेर एक कही जाय, आक दूध गाय दूध अन्तर घनेर है । पीरो होत री री पै न रीस करै कंचन की, कहां का वांणी कहां कोयल की टेर है । कहां मान मारौ कहां अगिया विचारौ कहाँ, पूनौ को उजारो कहां मावस अन्धेर है । पच्छ छोरि पारखी निहार नेक नीके करि, जैन बैन और बैन इतनों ही फेर है ॥'
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नाम-जप
भगवान् के नाम-जपकी महिमाको सभी भक्त कवियोंने एक स्वरसे स्वीकार किया है । तुलसीको 'विनय-पत्रिका' का एक बहुत बड़ा अंश भगवान्के नामकी महत्तासे भरा हुआ है। जैन कवियोंने भी जिनेन्द्रके नाम- गत चमत्कारको स्वीकार किया है । उनको दृष्टिमे भगवान् के नामसे मोक्ष प्राप्त होता है | भगवान् के नामसे चक्रवर्तीका पद मिलना तो बहुत ही आसान है । अर्थात् नाम-जपसे इहलोक और परलोक दोनों ही सधते हैं ।
सत्तरहवीं शताब्दीके कवि कुमुदचन्द्रने 'भरत बाहुबली छन्द के आरम्भमें ही मंगलाचरण करते हुए लिखा है, "मैं उस आदीश्वर प्रभुके चरणोंमे प्रणाम करता हूँ, जिसके नाम लेने मात्रसे ही संसारका फेरा छूट जाता है । अर्थात् यह जीव भव भ्रमणसे मुक्त हो जाता है ।" श्री कुशललाभने अपने 'नवकार छन्द मे पंचपरमेष्ठीके नामकी महत्ताका बखान करते हुए लिखा है, " जो नित्य प्रति 'नवकार' को जपता है, उसको संसारकी संपत्तियाँ तो मिल हो जाती है, और शाश्वत सिद्धि भी उपलब्ध होती है, " इसी शताब्दीके कवि मनरामने 'मनराम विलास मे लिखा है । "अरहन्तके नामसे आठ कर्मरूपी
१. जैनशतक, १६वॉ पद, कलकत्ता, पृ० ५–६ ।
२. पणविवि पद आदीश्वर केरा, जेह नामें छूटे भव फेरा ।
कुमुदचन्द, भरतबाहुबलि छन्द, पहला पद्य, प्रशस्तिसंग्रह, जयपुर, १६५०, पृ० २४३ ।
३. कुशललाभ, नवकार छन्द, अन्तिमकलश, जैन गुर्जरकविओो, पहला भाग, बम्बई, १६२६ ई०, पृ० २१६ ।