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________________ १०६ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि विष्णु और महादेवमें नहीं हो सकता। भला जो चमक महारतनमे होती है, वह कांच के टुकड़ेमें कहाँसे पायी जा सकती है ।" कवि बिहारीदासने भी 'आतमा' रूपी देवकी आरती करते हुए कहा है, "ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर सदैव जिसका ध्यान लगाते है और सम्पूर्ण साधु जिसका गुण गाते हैं, मैं उस 'आतमदेवा'की आरती करता हूँ।"२ कवि द्यानतरायने एक पदमे भगवान् नेमिनाथको महान् ज्ञानी और वोतरागो बताते हुए यह स्वीकार किया है कि उनके समान अन्य कोई देव नहीं है। उनका कथन है, "हे भगवन् नेमिनाथ ! इस विश्वमें तुम्ही सबसे अधिक ज्ञानी हो । तुम्ही हमारे देव और गुरु हो। तुम्हारी कृपासे ही हमने सकल द्रव्योंको जान लिया है । हमने तीनों भुवनोंको छान डाला है, किन्तु तुम्हारे समान अन्य कोई देव दिखाई नहीं दिया । संसारमें अन्य जितने भी देवता है सब रागी, द्वेषी, कामी अथवा मानी है, किन्तु आप वीतरागी और अकषायी हो । नवयौवनसम्पन्ना राजुल रानीको छोड़कर तुमने जिस इन्द्रिय-जयका परिचय दिया था, अन्य कोई देव नहीं दे सका । हे भगवन्, मुझे इस संसारसे निकाल लो, हम गरीब प्राणी हैं।" भगवान् जिनेन्द्रकी वाणीको अन्य देवोंकी मिथ्यावाणीसे उत्तम बताते हुए भूधरदासने लिखा है, "आक और गायके दूधमे घनेरा अन्तर है । भला कहाँ कौवेकी वाणी और कहां कोयलको टेर। कहां भारी भानु और कहाँ विचारा अगिया, कहां पूनोका उजेला और कहाँ मावसका अंधेरा। यदि १. जो सुबोध सोहै तुम माहिं । हरि हर आदिक मे सो नाहिं ॥ जो दुति महारतन मै होय । काच खंड पावै नहिं सोय ॥ पाण्डे हेमराज, भक्तामर स्तोत्र भाषा, २०वॉ पद्य, बृहज्जिनवाणी संग्रह, १९५६ ई०, पृ० १६६ । २. ब्रह्मा विष्णु महेश्वर ध्यावें । साधु सकल जिहँ को गुण गावै ॥ करौं आरती आतम देवा । गुण परजाय अनन्त अभेवा ॥ बिहारीदास, आत्माकी भारती, बृहज्जिनवाणी संग्रह, १९५६ ई०, पृ० ५२० । ३. ज्ञानी ज्ञानी ज्ञानी, नेमि जी ! तुम ही हो ज्ञानी ॥ तुम्ही देव गुरु तुम्ही हमारे, सकल दरब जानी ॥ज्ञानी०॥१॥ तुम समान कोउ देव न देख्या, तीन भवन छानी । आप तरे भव जीवनि तारे, ममता नहिं आनी ॥ज्ञानो०॥२॥ और देव सब रागी द्वेषी, कामी कै मानी।। तुम हो वीतराग अकषायी, तजि राजुल रानी ज्ञानो०॥३॥ द्यानतराय निकास जगत तें, हम गरीब प्रानी ॥ज्ञानी०॥४॥ द्यानतरायपदसंग्रह, कलकत्ता, २८वाँ पद, पृ० १२ ॥
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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