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________________ जैन भक्ति काव्यका मात्र पक्ष उत्तम देह् दर्पणकी भाँति चमकती है, और उसमें सात भव साक्षात् दिखाई देते हैं, ऐसे भगवान् नाभिनन्दनको हमारा त्रिकाल नमस्कार हो ।" इसी शताब्दी कवि जिनहने लिखा है, "भगवान् आदिनाथकी सुर, नर और इन्द्र सभी सेवा करते है । उनके दर्शन करने मात्रसे ही पाप दूर भाग जाते है। कलियुग के लिए तो वे कल्पवृक्ष की भाँति है । सारा संसार उनके चरणोंपर झुकता है । उनकी महिमा और कीर्ति इतनी अधिक है कि कोई उसका पार नही पा सकता । सब स्थानोंपर जिनराजकी ज्योति जगमगा रही है। वे भव-समुद्रको पार करनेके लिए जहाजकी भाँति है । प्रभुजीको छवि मोहनी और अनूप है, उनका रूप अद्भुत है और वे धर्मके सच्चे राजा है । हमारे नेत्र ज्यों ही भगवान्‌को देखते है कि सुखके बादल बरस पड़ते है ।" "देख्यौ ऋषभ जिनंद तब तेरे पातिक दूरि गयौ, प्रथम जिनंद चन्द्र कलि सुर-तरु कंद । सबै सुर नर इंद आनन्द भयौं । जाके महिमा कीरति सार प्रसिद्ध बढ़ी संसार, कोऊ न लहत पार जगत्र नयो । पंचम आरे में भाज जागै ज्योति जिनराज, भवसिंधु को जिहाज आणि कै ठयो ॥ बण्या अद्भुत रूप, मोहनी छबि अनूप, धरम कौ साचौ भूप, प्रभुजी जयौ । कहै जिन हरषित नयण मारे निरखित, सुख घन बरसत इति उदयौ ॥ २ ४०५ अन्यसे महत्ता भक्ति कालके सभी कवियोंने अपने-अपने आराध्यको अन्योंसे कहीं अधिक महिमावान् बतलाया है, और जैन कवि भी उसके अपवाद रूप नहीं है । भक्त कवियों का यह भाव उनकी अनुदारताका नहीं, अपितु अनन्यताका सूचक है । सत्तरहवीं शताब्दीके पाण्डे हेमराजने 'भक्तामर स्तोत्र भाषा' में आदि प्रभुकी स्तुति करते हुए लिखा है, "हे भगवन् ! जो ज्ञान आपमे सुशोभित होता है, वह १. विनोदीलाल, चतुर्विंशति जिनस्तवन सवैया, राजस्थानमें हिन्दीके हस्तलिखित ग्रन्थोंकी खोज, चतुर्थं भाग, साहित्य संस्थान, उदयपुर, १६५४ पृ० ११८ | २. जिनहर्ष, चौबीसी, पहला पद, राजस्थानमें हिन्दीके हस्त लिखित ग्रन्थोंकी खोज, चौथा भाग, पृ० १२३-१२४ । ५२
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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