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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
"हे भगवन् ! तुम्हारा दर्शन करने मात्रसे ही मुझे ऐसा विदित होता है जैसे कि उत्तम चिन्तामणि ही मिल गयी हो, जैसे हमारे आंगनमे कल्पवृक्ष विविध फलोसे फर गया हो और जैसे हमारे घरमे सुरधेनुका ही अवतार हो गया हो। जिस किमीने भगवान ऋषभनाथको अपनी भक्तिसे प्रसन्न कर लिया, उसकी सभी मनोवांछित अभिलापाएँ सहजमे ही पूरी हो जाती है।" इसी शताब्दीके एक दूसरे कवि मेरुनन्दन उपाध्यायने अपने 'सीमन्धर जिनस्तवनम्'मे स्वामी सोमन्धरको महिमापर विमोहित होकर लिखा है, "उन जिनेन्द्र भगवान्को जय हो, जिनके वचनोंमे इतना अमृत भरा है कि उसके समक्ष चन्द्रका अमृतकुण्ड भी तुच्छ-सा प्रतिभासित होता है। भगवान्के नेत्र कोमल और विशाल कमलको भॉति है । देव दुन्दुभियां सदा भगवान्की महिमाको उद्घोषित करती रहती है । भगवान् अनन्त गुणोंके प्रतीक है, और उनका कृपा-कटाक्ष पल-भरमें ही भक्तको संसार-समुद्रसे पार कर देता है। भक्तको पूरा विश्वास है कि ऐसे भगवान्को प्रणाम करनेसे, मन निरालम्ब रहकर, चकृत होकर दौड़ नहीं पायेगा। उसे अवलम्ब मिलेगा और वह भव-समुद्रको पार कर लेगा।"२
सत्तरहवी शताब्दीके कवि त्रिभुवनचन्द्रने, 'अनित्यपंचाशत' में परमातमकी जय-जयकार करते हुए कहा है, "जिसका स्वरूप पावन है, मूति अनुपम है और जिसकी वाणी करुणासे भरी हुई है, उन संयमवन्त भगवान्ने एक वीर योद्धाकी भाँति अपने हृदयमे धैर्यरूपी वनुषको धारण किया है। उससे तीक्ष्ण बाणोंको छोड छोड़कर वे अपने शत्रु मोहका वध करते हैं। संसारमे ऐसे परमातम रूप भगवान्को सदा जय-जयकार होवे ।"३ अठारहवीं शताब्दीके कवि विनोदीलालने अपने 'चतुर्विशति जिन स्तवन सवैय्या मे भगवान आदिनाथकी महिमाका उल्लेख करते हुए लिखा है, "जिसके चरणारविन्दकी पूजा करनेके लिए बड़े-बड़े सुरेन्द्र, इन्द्र और देवोंके समूह आया करते है, और जिसके चारों ओर चन्द्र-जैसी आभा छिटकी रहती है, जिसके नखोपर करोड़ों सूर्योकी किरणें न्यौछावर की जा सकती है, और जिसके मुखको देखकर कामदेवको शोभा भी पराजित हो जाती है, जिसकी १. दसण तुम्ह विहाण अच्छ चितामणि चडियउ ।
सुरतरु अंगणि अम्ह अच्छ विविहप्परि फलियउ॥ सुरहंधेणु अंगणिहिं णाह अम्हहं अवयरियउ । जइ भेद्य उ सिरि रिसहणाह मणवंछिय सरियउ ।। पञ्चतिलक, गर्मविचारस्तोत्र, वॉ पद्य । २. मेरुनन्दन उपाध्याय, सीमन्धर जिनस्तवनम् , इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय । ३. त्रिभुवनचन्द्र, अनित्यपंचाशत, प्रथम पद्य, प्रशस्ति संग्रह, जयपुर, पृष्ठ २०१।