________________
जैन भक्ति-काव्यका मात्र पक्ष
४०३
लिखा है, "बुद्धि-हीन होते हुए भी मै, भक्तिसे विवश होकर ही भगवान्की स्तुति कर सका हूँ । मेरा मंगलगीत प्रबन्ध, बुद्धिके न होते हुए भी भक्ति से ही अनुप्राणित है ।
भक्त भगवान्को स्तुति करना चाहता है, किन्तु कैसे करे उसमे सामर्थ्य तो है ही नही । इसी भावको आकर्षक ढंगसे अभिव्यक्त करते हुए द्यानतरायजीने कहा, "हे प्रभु, मै तेरी स्तुति क्सि ढंग से करूं । जब गणधर भी करते हुए पार प्राप्त नही कर पाते, तो फिर मेरी बुद्धि क्या है । इन्द्र जन्म-भर सहस्र जिह्वाओं को धारण कर तुम्हारे यशको कहता है, फिर भी पूरा नही कह पाता । फिर भला मैं एक जिह्वामे उसे कहनेमे कैसे समर्थ हो सकता हूँ । मेरा यह प्रयास वैसा ही होगा, जैसे उल्लू सूर्यके गुणोंको कहनेका उपक्रम करे । हे भगवन् ! तुम्हारे गुणोको कहनेका वचनोंमे वैसे बल नही है, जैसे नेत्रोंमें आकाशके तारे गिननेकी शक्ति नहीं होती । "
""प्रभु मैं किहि विधि श्रुति करौं तेरी ।
गणधर कहत पार नहिं पाबै, कहा बुद्धि है मेरी ॥ प्रभु० ॥१॥ शक्र जनम भरि सहस जीभ धरि तुम जस होत न पूरा ।
एक जीभ कैसें गुणगावै उलू कहै किमि सूरा ॥ प्रभु० ॥२॥
चमर छत्र सिंहासन बरनों, ये गुण तुमतें न्यारे ।
तुम गुण कहत वचनबल नाहीं नैन गिनै किमि तारे ॥ प्रभु० ॥३॥२
आराध्य की महिमा
आराध्य की महिमाकी स्वीकृतिके बिना विनयका भाव निभ ही नहीं सकता । जबतक भक्त आराध्यके गुणोंपर त्रिमुग्ध न होगा, उसकी उपासनामे न तो एकतानता आयेगी और न सचाई । आराध्यकी महिमाकी अनुभूति जितनी गहरी होती जायेगी भक्तका हृदय उतना ही पुनीत और आराध्यमय हो जायेगा । उपास्यके गुणोंकी चरम अनुभूति पूज्य और पूजकके भेदको मिटा देती है ।
सोलहवीं शताब्दी के कवि पद्मतिलकने 'गर्भ विचार स्तोत्र' का निर्माण किया था, जिसमे भगवान् जिनेन्द्रकी महिमाका वर्णन करते हुए उन्होने लिखा है,
१. मै मतिहीन भगतिवस भावन भाइया ।
मंगल गीत प्रबन्ध सु निजगुंण गाइया ||
पाण्डे रूपचन्द्र, मंगलगीत प्रबन्ध, निर्वाणकल्याणक, २५वाँ पद्य, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृ० १०३ ।
२. द्यानतराय, द्यानतपद संग्रह, कलकत्ता, ४५ वाँ पद, पृ० ११-२० ।