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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
भक्त है और तुम हमारी चालको जानते हो। हम कोई भौतिक वैभव नहीं चाहते, केवल आप हमारे राग-द्वेषोंको हटा दीजिए। हे प्रभु ! हमसे कितनी ही भूलें हो गयी हों, और हमने कितने ही पाप किये हों, किन्तु आप तो करुणाके समुद्र हो । हमको एक बार और केवल एक बार इस संसारसे निकाल लो, बस इतना ही निवेदन है।"१
लघुता
आराध्यके समक्ष लघुताको अनुभूति सात्त्विकताको द्योतक है। बिना उसके भक्तका सिर भगवान्के चरणोंपर झुक ही नहीं सकता। लघुतासे अहंकार हटता है और विनय उत्पन्न होती है। तुलसीदासकी विनयपत्रिका-लघुताके भावसे ही ओतप्रोत है। जैन भक्त कवियोंको रचनाओमे भी लघुताका भाव है। __ कवि बनारसोदासने भगवान् जिनेन्द्रसे प्रार्थना करते हुए कहा, "जो कमठके मानका भंजन करनेवाले, गरिमा और गम्भीर गुणोंके समुद्र है, तथा जिनके यशका वर्णन करके सुरगुरुभी पार प्राप्त नही कर सकते, मै अज्ञानी उन्हीके यशको कहनेका प्रयास कर रहा हूँ। अर्थात् भगवान्का यश महत् है और मेरी बुद्धि अल्प । प्रभुका स्वरूप अत्यधिक अगम्य है और अथाह, मै उसको वैसे ही नहीं कह सकता, जैसे दिन-अन्ध उलूक रवि-किरनके उद्योतको नहीं कह सकता।"
भक्तके पास ऐसी बुद्धि नहीं जो वह भगवान् जिनेन्द्रको स्तुति कर सके, किन्तु फिर भी वह करता है, क्योकि करे बिना रह नहीं सकता। पाण्डे हेमराजने इसी भावको लेकर अपनी लघुता अभिव्यक्त की है, "मै बुद्धिहीन होते हुए भी आपके चरणोंकी स्तुति करनेका प्रयास कर रहा हूँ, यह वैसा ही है जैसे कि कोई मूर्ख बालक जलमे प्रतिबिम्बित चन्द्रको पकड़नेकी इच्छा करता है। आपके अगण्य गुणोंको कहना, प्रलयकालकी पवनसे उद्धत समुद्रको भुजाओंसे तैर जाना है।" अपनी लघता दिखाते हा पाण्डे रूपचन्दने 'निर्वाण कल्याण के अन्तमें
१. इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय, धानतराय। २. बनारसीदास, कल्याणमन्दिर स्तोत्र भाषा, चौपाई ३-४, बनारसीविलास,
जयपुर, १६५४, पृ० १२४।। ३. पाण्डे हेमराज, भक्तामर स्तोत्र भाषा, चौपाई ३-४, बृहज्जिनवाणी संग्रह, १९५६
ई०, पृ० १९४।