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________________ जैन मक्ति-काव्यका भाव-पक्ष "भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रवे दर्शन मात्रसे पाप दूर हो जाते है और आनन्द बढता है। उन भगवान्की सुर, नर और इन्द्र सदैव सेवा किया करते है।" दीनता दीनताका अर्थ 'विधियाना' नहीं है, अपितु आराध्यके गुणोसे प्रभावित होकर अपनी विनम्रता अभिव्यक्त करना है। चापलूसी स्वार्थजन्य होती है, जब कि दीनतामे भक्ति-भाव ही प्रधान है । चापलूसोमे विवशता है और दीनतामे स्वत.प्रेरकता। दीनका हृदय पावन होता है, जब कि चापलूसका अपावन । श्री वियोगीहरिका कथन है, "दीनबन्धुका निवास स्थान दीन हृदय है। दीन हृदय ही मन्दिर है, दीन हृदय ही मस्जिद है और दीन हृदय ही गिरजा है।" दीन अपने दीनबन्धुसे याचना भी करता है किन्तु स्वाभिमानके साथ । महात्मा तुलसीदासने उसको मानी मंगना लिखा है । यह हो उसकी शान है। भूधरदासके पदोंमें 'दीनदयालु' शब्दका बहुत प्रयोग हुआ है। एक स्थानपर उन्होंने भगवान् जिनेन्द्रको सम्बोधन करते हुए लिखा है, "हे जगतगुरु ! हमारी एक अरज सुनिए । तुम दीनदयालु हो और मैं संसारी दुखिया हूँ । इस मंसारको चारों गतियोमे घूमते-घूमते मुझे अनादिकाल बीत गया और किंचिन्मात्र भी सुख नही पा सका । दुःख-ही-दुःख मिलते रहे । हे जिन ! तुम्हारे सुयशको सुनकर अब तुम्हारे पास आया हूँ। तुम संसारके नीति-निपुण राजा हो। हमारा न्याय कर दीजिए।" श्री द्यानतरायने विनय-भरा उपालम्भ, अपने दीनदयालु भगवान्को दिया है । उन्होने कहा, "हे प्रभु ! तुम दीनदयालु कहलाते हो, किन्तु स्वयं तो मुक्तिमे जा बैठे हो और हम इस संसारमें मर-खप रहे है । हम तो मन और वचनसे तीनो काल तुम्हारा नाम जपते है, और तुम हमे कुछ नहीं देने। बताओ फिर हमारा क्या हाल होगा। हम भले बुरे जो कुछ भी है, तुम्हारे १. देख्यौ ऋषभ जिनंद तब तेरे पातिक दूरि गयो । प्रथम जिनंद चन्द कलि सुर-तरु कंद । सेवै सुर नर इंद मानन्द भयौ ॥१॥ दे० ।। २. श्री वियोगी हरि, दीनोंपर प्रेम, 'जीवन और साहित्य', डॉ. उदयमानुसिंह सम्पादित, श्रीराम मेहरा एण्ड कम्पनी, आगरा, जून १९५६, पृ० १०६ । ३. भूधरदास, वीनती, बृइज्जिनवाणी संग्रह, पृ० ५३० ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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