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________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि दुःख-द्वन्द्वको चूरते और महाचैनके सुखको पूरते हैं। सुरेन्द्र उनकी सेवा करते है, नरेन्द्र गुण गाते है, और मुनीन्द्र ध्यान लगाते है, और इस भांति सभीको अत्यधिक सुख मिलता है। वे भगवान् जिनचन्द्र क्षण-भरमे ही आनन्दकी सुगन्धि बिखेर देते हैं।" "आनंद को कंद निधों पूनम को चंद किधों, देखिए दिनंद ऐसो नन्द अश्वसेन को । करम को हरै फंद भ्रम को करै निकंद, चूरै दुख द्वन्द्व सुख पूरै महा चैन को ।। सेवत सुरिंद गुन गावत नरिंद भैया, ध्यावत मुनिंद तेहू पावें सुख ऐन को । ऐसो जिनचंद करै, छिन में सुछंद सुतो, ऐक्षित को इंद पार्श्व पूजों प्रभु जैन को ॥"" अठारहवीं शताब्दीके कवि बिहारीदासने अपनी पिछली करनीपर पश्चात्ताप करते हुए भगवानसे प्रार्थना की है, "मैं सदैव तृष्णाकी दाहमें पजरता रहा हूँ, और समता-सुधाको चखा तक नहीं। अपूर्व भगवत् स्वादके बिना मैं विषयरसका ही भक्षण करता रहा । हे प्रभु ! अब सदा मेरे हृदयमे बसो, और मै सदैव आपके चरणोंका सेवक रहूँ।" जगतरामने भी 'जैन-पदावली मे 'साहिब सेवगताई'के पुष्ट होनेकी ही याचना की है। शिरोमणि जैनने अपने 'धर्मसार में भगवान् महावीरके उन चरणोमे श्रद्धापूर्वक नमस्कार किया है, जिनकी इन्द्र और नरेन्द्र निरन्तर सेवा किया करते है, और जिनका स्मरण करने मात्रसे ही पाप विलीन हो जाते हैं। कवि जिनहर्षने अपनी 'चौबीसी' के प्रथम छन्दमें ही लिखा है, १. वही, अहिक्षित पार्श्वजिन स्तुति, २०वाँ पद्य, पृ० १६२ । २. परचाह दाह दहयो सदा कबहूं न साम्य सुधा चख्यो। अनुभव अपूरब स्वादु विन नित विषय रस चारो भख्यो॥ अब बसो मो उर मे सदा प्रभु, तुम चरण सेवक रहों। वर भक्ति अति दृढ होह मेरे, अन्य विभव नहीं चहों। बिहारीदास, जिनेन्द्रस्तुति, बृहज्जिनवाणी-संग्रह, सम्राट संस्करण, मदनगंज, किशनगढ़, ५वाँ पद्य, पृ० १२७-२२८ } ३. जगतराम, जैन पदावली, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय, जगतराम । ४. शिरोमग्णिदास, धर्मसार, इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय, शिरोमणि रास ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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