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जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष
पुनीत चित्र है। इसके अतिरिक्त 'ज्ञानकल्याणक' मे केवलज्ञानके प्राप्त हो जानेपर भगवान्के समवशरणकी रचना स्वयं कुबेरने की थी, जो उसके सेवा-भावकी हो प्रतीक है। उस समवशरणमे विराजमान भगवान्की जो नर-नारी सेवा करते थे, उनको अनिर्वचनीय आनन्द प्राप्त होता था। मारुत नामके देवता तो समवशरणके आस-पामकी योजन-प्रमाण पृथ्वीको सदैव झाड़-बुहारकर पवित्र और निर्मल रखते थे। उसपर मेवकुमार नामके देवता गन्धोदककी सुवष्टि करते थे। भक्त देवगण, भगवान्के चलते समय उनके नीचे कमलोकी सृष्टि करते थे।
भैया भगवतीदासने भगवान् पार्श्व जिनेन्द्रको सेवाकी बात करते हुए लिखा है, "हे जीव ! तू देश-देशान्तरों में क्यों दौड़ता फिरता है, इन्द्र और नरेन्द्रोको क्यो रिझाता है ? देवी-देवताओको क्यों मनाता है, और क्यों चन्द्रको सिर झुकाता है। सूर्यको अंजलीबद्ध होकर नमस्कार क्यों करता है, और क्यों पाखण्डी तपस्वियोंके पैर छूता फिरता है। न जाने तू पाव जिनेन्द्रकी सेवा क्यों नहीं करता, जिससे तेरा दिन और रातका सोच ही समाप्त हो जाये।"
"काहे को देश दिशांतर धावत, काहे रिझावत इंद नरिंद। काहे को देवि औ देव मनावत, काहे को शीस नवावत चंद ॥ काहे को सूरज सों कर जोरत, काहे निहोरत मूढ मुनिंद ।
काहे को शोच करै दिन रैन हूँ, सेवत क्यों नहिं पार्श्व जिनंद ॥" 'भैया'का पूर्ण विश्वास है कि भगवान्के चरणोंकी सेवा करनेसे तुरन्त ही अनन्त गुण प्रकट हो जाते है, और इतनी 'रिद्धि-सिद्धियाँ' मिलती है कि उनसे चिरकालतक परमानन्दका अनुभव किया जा सकता है। उन्होंने 'अहिक्षिति पार्श्वजिन स्तुति' मे लिखा है, "अश्वसेनके नन्द आनन्दके कन्द है, अथवा पनमके चन्द अथवा दिनन्द है। वे कर्मोंके फन्देको हरते, भ्रमका निकन्दन करते,
१. पाण्डे रूपचन्द, पंचमंगल ज्ञानकल्याणक, १६वॉ पद्य, ज्ञानपीठ पूजांजलि,
भारतीय शानपीठ, काशी, १९५७ ई०, पृ० १०० । २. अनसुरै मरमानन्द सबको, नारि नर जे सेवता ।
जोजन प्रमान धरा सुमार्जहिं, जहाँ मारुत देवता ।। पुनि करहिं मेघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सुहावनी । पद कमल तर सुर खिपहिं कमल सु, धरणि ससि सोभा बनी। वही, पद्य १६वॉ, पृ० १०१। ३. ब्रह्मविलास, जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, सन् १९२६ ई०, द्वितीया
बृत्ति, पृ० ६१।