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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
मनराम-विलास
इसकी प्रति जयपुर के ठोलियोके दिगम्बर जैन मन्दिरके वेष्टन नं० ३९५ में निबद्ध है । इसमें कुल १० पृष्ठ और ९६ पद्य है । इनका संग्रह किन्ही बिहारीदास नामके व्यक्तिने किया था। उसने लिखा है, "मेरे चित्तमे ऊपजी, गुनमनराम प्रकास । सोधि बीनए एकठे, किये बिहारीदास ॥" अर्थात् बिहारीदासने केवल संग्रह ही नहीं, किन्तु सम्पादन भी किया था, तभी तो वह मूल पद्योंको शुद्ध कर सके। यह काव्य सुभाषितोसे सम्बन्धित है। इसमें दोहा, सवैया, और कवित्त आदि विविध छन्दोका प्रयोग किया गया है। प्रारम्भमें हो पंच-परमेष्ठीको वन्दनामें भक्ति है, और सरसता भी, "करमादिक अरिन को हरै अरहंत नाम, सिद्ध करै काज सब सिद्ध को मजन है। उत्तम सुगुन गुन आचरत जाकी संग, आचारज भगति वसत जाकै मन है। उपाध्याय ध्यान तै उपाधि सम होत, साध परि पूरण को सुमिरन है। पंच परमेष्ठी को नमस्कार मंत्रराज धावै मनराम जोई पावै निज धन है।"
भगवान् के स्वरूपका विवेचन करते हुए मनरामने लिखा है कि - वह भगवान् निर्विकार, निश्चल, निकल, निर्मल ज्योति, ग्यानगम्य और ज्ञायक है, उसका वर्णन कहांतक किया जाये। जिस-किसीने भगवान्के इस रूपको जान लिया है, फिर उसे विश्वमें कुछ और करनेको नहीं रह जाता,
"निर्विकार निश्चल निकल निर्मल ज्योतिग्यानगम्य ग्यायक कहां लौं ताहि बरनौं । निहचै सरूप मनराम जिन जानौ ऐसौ,
ताकौ और कारिज रहयौ न कछू करनौ ॥३५॥" मोहकर्मको सामर्थ्य सभीको विदित है। उसने जगके सभी प्राणियोंको भ्रममें सान रखा है। भ्रमवशात् ही यह जीव अदेवोंको देव मानकर उनकी सेवा करता है। सच्चा देव तो उसकी देहके भीतर ही रहता है, जिसे भूलकर वह इधर-उधर भटकता फिरता है,
"देषो चतुराई मोह करम की जग ते, प्रानी सब राषे भ्रम सानि के। देवनि को देव सो तौ बसै निज देह मांझ,
ताको भूल सेवत अदेव देव मानि कै ॥६३॥" मनरामने अंगोंकी सार्थकता इसीमें मानी है कि वे आराध्यकी ओर लगे रहें,