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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य और उनके बताये मार्गपर चलनेमे ही अपनेको कृतकृत्य मानें। वह पद्य इस प्रकार है,
"नन सफल निरर्ष जु निरंजन, सीस सफल नमि ईसर झावहि । श्रवन सफल जिहि सुनत सिद्धांतहि, मुषज सफल जपिए जिन नांवहि । हिर्दो सफल जिहि धर्म बसै ध्रुव, करज सुफल पुन्यहि प्रभु पावहि । चरन सफल मनराम वह गनि,
जे परमारथ के पथ धावहि ॥९०॥" भगवान्के नामकी महिमाका उल्लेख करते हुए कवि मनरामने लिखा है कि यदि शुद्ध मनसे चौबीस जिनेन्द्रक नाममन्त्रका उच्चारण किया जाये तो अघरूपी सर्प कैसे ठहर सकता है,
"मन शुद्ध मनराम चौ सो जिनंद नाम
मन्त्र जपै अघ व्याल कैसे ठहराति है ॥२॥" यह संसार बहुत ही विचित्र है। इसमे अधिकतर मूर्ख रहते है । वे उसको योगी कहते है, जिसकी केवल वेष-भूषा योगकी है, किन्तु उसके मनको नही देखते जो भोगोंसे भरा है। जो मनको देखकर योगीकी परख करते है वे ही ज्ञानी है । ऐसे व्यक्ति सम्पत्तिसे भी अधिक योगीका सम्मान करते है,
"मन भोगी तन जोग लखि जोगी कहत जिहान । मन जोगी तन भोग तसु जोगी जानत जान ॥७२॥ सबै अरथ जुत चाह पर पुरुष जोग सनमान ।
ए समझे मनराम जो बोलत सो जग जान ॥७३॥" रोगापहार-स्तोत्र
इसकी प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके दिगम्बर जैन मन्दिरमे विराजमान गुटका नं. १७ में निबद्ध है। इसमे रोगोंको दूर करनेके लिए भगवान् जिनेन्द्रसे प्रार्थना की गयी हैं। भक्त-कविको विश्वास है कि भगवान् जिनेन्द्रकी उपासनासे आत्मामें ऐसे विशुद्ध भावोंका संचार होगा, जिससे शारीरिक और मानसिक सभी रोग स्वतः विलीन हो जायेंगे। बत्तीसी
इसकी प्रति जयपुरके ठोलियोंके दिगम्बर जैन मन्दिरमे गुटका नं० ११० में