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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
इससे सिद्ध है कि यह उनकी प्रारम्भिक कृति है । अतः उसकी शैली बनारसीकी अन्य प्रौढ कृतियोंसे नही मिलती । आज हिन्दीके अनेक ख्यातिप्राप्त कवि हैं, जिनकी प्रथम रचनाएँ उनको प्रतीत नहीं होती ।
इस कृतिके अन्तके तीन पद्योंमें बनारसीका नाम भी दिया हुआ है । फिर भी प्रामाणिक निर्णयके लिए ठोस विचारको आवश्यकता है ।
मांझा
यह रचना जयपुर के बधीचन्दजीके मन्दिरके गुटका नं० २८ में निबद्ध है । इसमें १३ पद्य है । इसकी छठी पंक्ति देखिए,
" मानुषजनम अमोलक हीरा, हार गंवायो खासा"
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नये पढ़
पं० नाथूराम प्रेमीके द्वारा सम्पादित 'बनारसो- विलास में तीन नये पदोंका संग्रह किया गया था। अब जयपुरसे प्रकाशित 'बनारसी-विलास' में दो और नये पदोंका प्रकाशन हुआ है । पाटौदी मन्दिर जयपुरके गुटका नं० २२ पृ० १३६ पर मैंने बनारसीदासका एक नया पद देखा है - तू ब्रह्म भूलो तू ब्रह्म भूलो अज्ञानी रे प्राणी !
५४. मनराम ( १७वीं शती विक्रम, उत्तरार्ध )
उनकी रचनाओंसे यह सिद्ध है कि मनराम सत्रहवीं शताब्दीके कवि थे । वे बनारसीदासजी के समकालीन थे । उन्होंने अपने मनराम विलासमें श्री बनारसीदासजीका सादर स्मरण किया है। उनकी रचनाएँ भी बनारसीदासकी भाँति ही आध्यात्मिक - रससे ओतप्रोत है । उन्होंने खड़ी बोलीका प्रयोग किया है। हो सकता है कि वे मेरठ के आस-पास किसी प्रदेशके रहनेवाले हों। वैसे उनकी कृतियोंसे यह विदित नहीं होता कि वे कहाँके निवासी थे और उनके माता-पिताका क्या नाम था ? श्री कस्तूरचन्दजी कासलीवालने उन्हें संस्कृतका प्रौढ़ विद्वान् कहा है, क्योंकि उनकी रचनाओंमें संस्कृत शब्दों का प्रयोग किया गया है। किन्तु यह आधार बहुत निर्बल है। केवल संस्कृतके शब्दोंका प्रयोग करने मात्र से कोई संस्कृतका उद्भट विद्वान् नहीं कहा जा सकता। उनकी रचनाओंका संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार से है :
१. श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल, हिन्दीके नये साहित्यकी खोज, अनेकान्त, वर्ष १४, किरण १२, पृष्ठ ३३३ |
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