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________________ १९२ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि "श्री विससेन नरेस, सूर नृप राय सुंदसन । अचिरा सिरिआ देवि, करहिं जिस देव प्रसंसन ॥ तसु नंदन सारंग, छाग नंदावत लंछन । चालीस पैंतिस तीस, चाप काया छवि कंचन ॥ सुखरासि बनारसीदास मनि, निरखत मन आनंदई । हथिनापुर, गजपुर, नागपुर, सांति कुंथु श्रर वंदई ।" " मोह - विवेक युद्ध' इसमें ११० पद्य है । दोहा चौपाई छन्दोंका प्रयोग किया गया है। इसकी अनेकानेक हस्तलिखित प्रतियां जैन-भण्डारोंमें पायी जाती है। बीकानेर के खरतर गच्छीय भण्डार के एक गुटके में 'बनारसी विलास' के साथ यह भी लिखा हुआ है । इसकी पाँच प्रतियाँ जयपुर के शास्त्र भण्डारोंमें भी सुरक्षित हैं। बीकानेरवाली प्रतिके भक्ति से सम्बन्धित दो पद्य इस प्रकार हैं, “श्री जिन भक्ति सुद्दढ़ जहां, सदैव मुनिवर संग । कहै क्रोध तहां मैं नहीं, लग्यौ सु श्रतम रंग ॥ ५८ ॥ अबिभचारिणी जिनभगति, आतम अंग सहाय । कहै काम ऐसी जहां, मेरी तहाँ न बसाय ॥३२॥" जैन धर्म वीतरागी है । रागका अर्थ है मोह । मोहको जीतने में ही जीवन की सार्थकता है | ज्ञान वही है जो मोहको जीत ले । अतः मोह और विवेकका यह युद्ध जैन-परम्पराके अनुकूल ही है । बनारसीदासके पूर्व इस विषयपर अनेक कृतियाँ रची गयी थीं। उनमें यशः पाल मोड़का 'मोहपराजय', वादिचन्द्रसूरिका 'ज्ञानसूर्योदय', हरदेवका 'मयणपराजय चरिउ', नागदेवका 'मदनपराजयचरित' और पाहलका 'मनकरहारास' प्रसिद्ध हैं। सभीमें मोह और विवेकका युद्ध है । बनारसीदास ने अपने पूर्ववर्त्ती तीन कवियों - मल्ल, लालदास और गोपालके 'मोह-विवेक-युद्ध' का उल्लेख किया है । वे उनसे प्रभावित थे। तीनों हिन्दी में लिखी गयी थीं । प्रस्तुत कृतिके लिए वे मूलाधार बनीं । बनारसीदासने 'मोह-विवेक-युद्ध' का निर्माण 'नवरस' रचनाके गोमतीमें प्रवाहित करने के उपरान्त ही किया होगा । 'काम' की प्रतिक्रियासे यह स्पष्ट ही है । १. वही, पच ५८३, पृष्ठ ६५ । २. बीर वाणी, वर्ष ६, अंक २३-२४, में श्री भगरचन्दजी नाइटा द्वारा प्रकाशित हो चुका है। वीर पुस्तक भण्डार, मनिहारोंका रास्ता, जयपुर से पुस्तकाकार रूपमें भी निकल चुका है।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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