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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
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चैत्यपरिपाटी' में पाटण, रायपुर, शत्रु जयगिरि, गिरिनार, पालीताना और जूनागढ़ आदि अनेक तीर्थोका आंखों देखा वर्णन है । इसमें २१ पद्य हैं, जो सोरठा और वस्तु नामके छन्दोंमे लिखे गये है । इस कृति में अनेक स्थल उत्तम काव्यके निदर्शन है ।
‘नगरकोट तीर्थ चैत्य परिपाटी" मे नगरकोटके तीर्थों, मन्दिरों और प्रतिमाओंITI आलंकारिक वर्णन है । भाषापर गुजरातीका प्रभाव है । अतः स्पष्ट है कि उपाध्यायजी गुजरात के ही रहनेवाले होगे । १५वीं शताब्दी के कवियोंमे दृश्यको चित्रित करनेकी ऐसी सामर्थ्य बहुत कममे देखी जाती है । उदाहरणके लिए,
"नंद वणिहि नंदउ सुचिरु चरम जिणासरचंद | जगु चकोरू जसु दंसणिहिं पामइ परमानंद ॥ पासि पसंसउं कोटिलए गामिहि महि अभिरामि । महमन कोइलि जिम रमउ तसु गुण अंबारामि ॥ हेमकुंभासिरि जिण भवणि ए सवि शुणिया देव । देवलिय कोठी भयरि करउं वीरजिण सेव ॥"
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'जिनकुशलसूरिचतुष्पदी' का निर्माण मलिकहलपुरमे हुआ था । यह एक सरस काव्य है । इसमे सूरि जिनकुशलकी महिमाका वर्णन किया गया है । 'वयरस्वामी गुरुरास' भी गुरुभक्तिका ही निदर्शन है । सभी स्तुति स्तोत्र उत्तम है।
'चतुविशति जिन स्तुति' मे २४ जिनेन्द्र का स्तवन है । भगवान् ऋषभदेवके दर्शनोंसे उत्पन्न होनेवाला आनन्द अनिर्वचनीय है,
" सुविहाणउ जइ आज भई, दीठउ रिसह जिणेस, नयण कमल जिम उल्लसइ, ऊगिउ भलइ दिनेस | रोम विहि तणु ऊधसई, हियडई परमानंद, नयण अमिय रस झलिणऊ, दीठउ आदि जिणंद ॥"
१. 'चैत्यपरिपाटी' की हस्तलिखित प्रति पाटण भण्डारमें, मुनि पुण्यविजयजीके संग्रह
में, सत्क प्रतिपत्र नं ० २- १० पर मौजूद है
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२. इसकी हस्तलिखित प्रति भी उपर्युक्त भण्डारमें है ।
३. नगरकोट, महातीर्थ चैत्य परिपाटी, पद्य ११-१३ ।
४. दादा श्री जिनकुशल सूरि, नाहटा सम्पादित, परिशिष्ट ग, पृ० ८२ । ५. जैन गुर्जर कविप्रो, तीजो भाग, पृ०१४७६ |