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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
कविका विश्वास है कि भगवान् महावीरको शरणमे जानेसे मन-वचनकायसे किये गये सभी राग-द्वेष दूर हो जाते है। उसने भगवान् वीरसे ऐसे प्रसादकी याचना को है, जिससे वह भव-भवमे भगवान्के पैरोंकी सेवा कर सके,
"राग दोस बसि जो कियउ, मणवय काय पमाय, तं मिच्छा दुक्कड हवउ, सरण वीर जिण पाय । करि पसाउ मुझ तिम किमइ, महावीर निणराय, इणि भवि अहवा अन्न मवि, जिम सेवउं तु पाय॥"
८. हीरानन्दसूरि ( वि० सं० १४८४-१४९५ )
हीरानन्दसूरिकी गणना, १५वीं सदीके उत्तम कवियोंमें की जाती है। वे पिप्पलगच्छके श्रीवीरप्रभसूरिके शिष्य थे। उन्होने अपनी कृतियोंमे मरुमण्डलके साचौरपुरके वीर भवनका उल्लेख किया है, इससे प्रमाणित है कि वे राजस्थानके रहनेवाले थे। उनकी भाषा भी सरल राजस्थानी ही है। उस समयकी राजस्थानी और हिन्दीमे इतना रूप-भेद नही था, जितना आजकल है। यदि यह कहा जाये कि वे एक ही थीं, तो अत्युक्ति न होगी। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीने राजस्थानीका गुजराती और हिन्दो दोनोसे ही अविच्छेद्य सम्बन्ध स्थापित किया है। इस तरह स्पष्ट है कि हीरानन्दसूरि हिन्दीके महत्त्वपूर्ण कवि थे। उन्होने 'वस्तुपालतेजपालरास' (वि० सं० १४८४), 'विद्याविलास पवाडो' (वि० सं०
१. वही, पृ० १४७६ ! २. पोपल गछि गुरुराय श्रीवीरप्रभ सूरि गहगहईए,
पामीअ सुगुरु पसाय, मरुमंडलि रुलिआमणुए। पुर साचुर मझारि, वीर भुवण रुलिआमणुए,
संघ सहित घरबारि, संवत चऊद पंचाणवईए । "जैन गुर्जर कविओ, तीजो भाग, जम्बूस्वामी विवाहला, अन्तभाग, पद्य ५२-५३, पृ०४२६ । ३. ढोलामारूरा दूहा, श्रीरामसिंह, सूर्यकरण पारीक और नरोत्तमदास स्वामी सम्पा___दित, भूमिका, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, १९३४ ई० पृ०। ४. हिन्दी साहित्यका आदिकाल, पृ०६, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् , पटना, १९५२ ई० । ५. यह पवाड़ा, बडौदासे प्रकाशित 'गूर्जररासावलि' में प्रकाशित हो चुका है । यह
'पवाडा' साहित्यमें सबसे प्राचीन है।