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जैन भक्ति: प्रवृत्तियाँ
हिन्दीके जैन भक्ति-काव्यमें यह रागात्मक भाव जिन अनेक मार्गोंसे प्रस्फुटित हुआ, उनमे 'दाम्पत्यरति' प्रमुख है । 'दाम्पत्यरति' का अर्थ है पति-पत्नीका प्रेमभाव । पति-पत्नीमें जैसा गहरा प्रेम सम्भव है, अन्यत्र नहीं । इसी कारण 'दाम्पत्यरति' को रागात्मक भक्तिमे शीर्ष स्थान दिया गया है | हिन्दीके जैन कवियोंने चेतनको पति और सुमतिको पत्नी बनाया । पतिके विरहमें पत्नी बेचैन रहती है, वह सदैव पति मिलनको आकांक्षा करती है। पति-पत्नी के प्रेममें जो मर्यादा और शालीनता होती है, जैन कवियोंने उसका पूर्ण निर्वाह 'दाम्पत्यरति' वाले रूपकोमें किया है । कवि बनारसीदासकी 'अध्यात्मपद पंक्ति', भगवतीदास 'भैया' की 'शत अष्टोत्तरी' मुनि विनयचन्दकी 'चूनड़ी', द्यानतराय, भूधरदास, जगराम और देवाब्रह्मके पदोंमें दाम्पत्यरतिके अनेक दृष्टान्त है और उनमें मर्यादाका पूर्ण पालन किया गया है । हिन्दी के कतिपय भक्ति काव्योमे दाम्पत्यरति छिछले प्रेमकी द्योतक-भर बनके रह गयी है । उसमें भक्ति कम और स्थूल सम्भोगका भाव अधिक है । भक्तिकी ओट में वासनाको उद्दीप्त करना किसी भी दशामे ठीक नहीं कहा जा सकता | पत्नीके द्वारा सेज सजायी जाना और उसपर सम्भोगके लिए पतिका आह्वान किया जाना, भक्ति तो नही ही है और चाहे कुछ हो । दाम्पत्यरतिके रूपकको 'रूपक' ही रहना चाहिए था, किन्तु जब उसमें रूपकत्व तो रहा नहीं, 'रति' ही प्रमुख हो गयी, तो फिर अशालीनताका उभरना भी स्वाभाविक ही था । जैन कवि और काव्य इससे बचे रहे ।
'आध्यात्मिक विवाह' भी रूपक काव्य है । इनमें किसी साधुका विवाह दीक्षाकुमारी या संयमश्री के साथ सम्पन्न होता है, अथवा आत्मारूपी नायकका गुणरूपी नायिका साथ । मेरुनन्दन उपाध्यायका 'जिनोदयसूरि विवाहलउ', उपाध्याय जयसागरका 'नेमिनाथ विवाहलो', कुमुदचन्दका 'ऋषभ विवाहला' और अजयराजपाटणीका 'शिवरमणीका विवाह' इस दिशाको महत्त्वपूर्ण कड़ियाँ हैं । 'आध्यात्मिक विवाह' जैनोंकी मौलिक कृतियाँ है । निर्गुनिए संतोने उनका निर्माण नहीं किया था । 'आध्यात्मिक फागुओं' की रचना भी जैन कवियोंने अधिक की । जैन चेतन अपनी सुमति आदि अनेक पत्नियोंके साथ होली खेलता रहा है । कभी-कभी पुरुष और नारीके जत्थोंके मध्य भी होलियां खेली गयी है । वैसे तो होलियाँ सहस्रों जैन पदोमें बिखरी है, किन्तु जैसी सरसता द्यानतराय, जगराम और रूपचन्दके काव्यमे है, दूसरी जगह नहीं । चेतनकी पत्नियोंको 'आध्यात्मिक चूनड़ी' पहननेका चाव था । कबीरको बहुरिया ने भी 'चूनड़ी' पहनी है, किन्तु साधुकीत्ति की 'चूनड़ी' में संगीतात्मक लालित्य अधिक है ।
नेमिनाथ और राजीमती से सम्बन्धित मुक्तक और खण्ड काव्योंमें जिस प्रेमकी
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