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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
अनुभूति सन्निहित है, वह भी स्थूल नहीं दिव्य ही था । वैरागी पतिके प्रति यदि पत्नीका सच्चा प्रेम है, तो वह भी वैराग्यसे युक्त ही होगा । राजीमतीका नेमीश्वरके साथ विवाह नही हो पाया था कि वे, भोज्यपदार्थ बननेके लिए बँधे पशुओं की करुण पुकारसे प्रभावित होकर तप करने चले गये; फिर भी राजोमतीने जीवन पर्यन्त उन्हींको अपना पति माना । ऐसी पत्नीका प्रेम झूठा अथवा वासनामिश्रित होगा, यह कोई नहीं कह सकता | हिन्दीकी अनेक मुक्तक रचनाओं मे राजीमतीके सौन्दर्य और विरही भावपरक अनुभूतियाँ हैं, किन्तु वे अपभ्रंशकी प्रोषितपतिकाओंसे यत्किंचित् भी प्रभावित नहीं है । राजीमती सुन्दर है, किन्तु उसे अपने सौन्दर्यका कभी आभास नही होता । राजीमती विरहप्रपीड़ित है, किन्तु उसे पति सुखका ही अधिक ध्यान है । विरहमे न तो उसकी शय्या नागिन बन सकी है और न उसने अपनी रातें ही पाटियाँ पकड़कर बितायी है । राजशेखर के 'नेमोश्वर फागु', हर्ष कोन्ति, हेमविजय और विनोदीलाल के 'नेमीश्वरगीतों में राजीमतीका सौन्दर्य तथा जिनहर्ष, लक्ष्मीबल्लभ, विनोदीलाल और धर्मवर्धनके 'नेमिराजीमती बारहमासों में राजीमतीका विरह उत्तम काव्यका निदर्शन है । कहीं पर भी अश्लीलता नहीं है । सब कुछ मर्यादासे बँधा है । हिन्दी के जैन काव्योमे नेमीश्वर और राजीमतीको लेकर अनेक मंगलाचरणोंकी भी रचना हुई है, किन्तु उनमे कहीं भो "पादाग्रस्थितया मुहुः स्तनभरेणानीतया नम्रताम्" और "औत्सुक्येन कृतत्वरा सहभुवा व्यावर्त्तमाना दिया ।" जैसी बात नहीं है । जब कि भगवान्के मंगलाचरण भी वासना के कमरेसे खीचे जा रहे थे, नेमीश्वर और राजुलसे सम्बन्धित -मांगलिक पद दिव्यानुभूतियोके प्रतीक भर ही रहे। उन्होंने अपनी पावनताका परित्याग कभी नही किया ।
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रहस्यवाद
जैन अपभ्रंशके 'परमात्मप्रकाश', 'सावयधम्म दोहा', 'दोहापाहुड' - रामसिंह 'वैराग्यसार' और 'दोहापाहुड' - महचन्द मे आत्म- ब्रह्मसे प्रेम करने और उसमे तन्मय होने की बात कही गयी है । वहाँ आत्म- ब्रह्म की भक्ति से सम्बन्धित अनेक चित्र है, जिनपर तन्त्रात्मक प्रवृत्तिका भी हलका-सा रंग है । मध्यकालीन हिन्दीके जैन कवि अपभ्रशके इस रहस्यवादसे प्रभावित हैं, किन्तु वे तन्त्रवादसे मुक्त हैं। उनकी अनुभूतियोमे भावात्मकता अधिक हैं | आचार्य कुन्दकुन्द के 'भाव पाहुड' मे भी भावात्मक अनुभूतिकी ही बात अधिक कही गयी है । भाव
१. देखिए इर्षकी 'रत्नावली' के प्रारम्भिक मंगलाचरण ।