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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि भक्तिधारा' और 'सगुण भक्तिधारा' के रूपमें विभाजित कर दिया है। कबीर आदि पहलीके और सूर आदि दूसरी धाराके कवि कहे जाते हैं। हिन्दीका जैन भक्ति-काव्य 'निष्कल' और 'सकल' के रूपमें नहीं बांटा जा सकता । उसमे दोनोंका समन्वय हुआ है। हिन्दीके जैन भक्त कवियोंने यदि एक ओर सिद्ध अथवा निष्कलके गीत गाये तो दूसरी ओर अर्हन्त अथवा सकलके चरणोंमें भी श्रद्धा-पुष्प चढ़ाये । उन्होंने किसी एकका समर्थन करनेके लिए दूसरेका खण्डन नही किया। भट्टारक शुभचन्द्रने 'तत्त्वसारदूहा', "देह विभिण्णो णाणमय रे मूरति रहित अमुत्त । ध्याउं अप्पा आपणो ध्यानानल पवित्त ॥ "कहा, तो "देव एक जिनदेव रे आगम जिन सिद्धान्त । तत्व जीवादिक सहहण होइ सम्मत्त भभ्रान्त ॥" भी कहा। मुनि चरित्रसेनने अपनी 'सम्माधि' नामकी कृतिमे, "खणि-खणि झाइयह णमो अरिहन्ताणं, जिव मेगे पावहु णिव्वाणं।" के द्वारा अर्हन्तके ध्यानकी बात कही, तो "जइ अप्पा अप्पडि गुण लग्ना, ते संसार महादुह भग्ना ॥" से आत्माके गुणोंमे तल्लीन होना भी स्वीकार किया। आनन्दतिलकने 'महानन्दिदेउ' नामको रचनामें "भप्पा संजमु सील गुण अप्पा दसण णाणु । वउ तउ संजम देउ गुरु आणंदा ते पावहिं णिवाणु ॥" लिखा तो दूसरी ओर सद्गुरु, जो शरीरधारी है, की भी महिमा का, “गुरु जिणवर गुरु सिद्ध सिउ, गुरु रयणत्तयसारु । सो दरिसावइ अप्प परु आणंदा, भवजल पावइ पार ॥" के द्वारा बखान किया। हिन्दीके भक्ति-काव्यका ऐसा कोई जैन कवि नहीं, जिसमें ये दोनों प्रवृत्तियां एक साथ न पायी जाती हों।
दिव्य अनुराग
जैन आचार्योंने 'राग' को बन्धका कारण कहा है, किन्तु वीतरागीमें किया गया 'राग' परम्परया मोक्षको ही देता है। वही 'राग' बन्धका हेतु है जो 'पर' में किया गया हो । वीतरागी परमात्मा 'पर' नहीं 'स्व' आत्मा ही है। आत्मप्रेमका अर्थ है आत्म-सिद्धि, जिसे मोक्ष कहते हैं। आचार्य पूज्यपादने 'राग' को भक्ति कहा, किन्तु उस रागको जो अर्हन्त, आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचनमें शुद्ध भावसे किया जाये। वीतरागीके प्रति रागका यह भाव जैन भक्तिके रूपमें निरन्तर प्रतिष्ठित बना रहा। भक्त कवियोंने तो उसीको अपना आधार माना। १. तत्त्वसार दूहा, मन्दिर ठोलियान, जयपुर, सम्माधि और महानन्दिदेउ, मन्दिर
बधीचन्दजी जयपुरकी हस्तलिखित प्रतियोंके आधारपर ये उद्धरण दिये गये है। २. प्राचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, ६।२४ का भाष्य ।