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जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ
'निष्कल' और 'सकल'
आचार्य योगीन्दुने 'परमात्मप्रकाश' में भगवान् 'सिद्ध' को 'निष्कल' कहा है। व्याख्यामे ब्रह्मदेव ने लिखा है, "पञ्चविधशरीररहितः निष्कलः ।"" सिद्ध शरीररहित होकर 'सिद्धि' में विराजते है । ज्ञानकी दृष्टिसे सिद्ध और बुद्ध आत्मामें अन्तर नहीं है, किन्तु 'सिद्ध' मोक्षमे और शुद्ध आत्मा देहमें रहती है । आचार्य कुन्दकुन्दने दोनों ही पूज्य कहा है। शरीररहित होनेसे वे निराकार होते हैं। शुद्ध आत्मा देहमें रहती अवश्य है, किन्तु स्वयं देहधारी नहीं है ।
अर्हन्त 'सकल' ब्रह्म कहलाते है | अर्हन्त वह हैं, जिन्होंने चार घातिया कर्मोंका नाश करके परमात्मपद पा लिया है; किन्तु अघातिया कर्मोके क्षय होने तक उन्हें इस संसार में रुकना है । संसारमें रुकनेका अर्थ है शरीरका बना रहना । अर्हता परम औदारिक शरीर होता है । वे सशरीरी कहलाते हैं । 'निष्कल' और 'सकल' मे अशरीरी और 'सशरीरी' के अतिरिक्त और कोई भेद नहीं है । दोनों ही आत्मा परमात्मतत्त्वकी दृष्टिसे समान है । ब्रह्मत्वकी दृष्टिसे 'निर्गुण' और 'सगुण' में भी समानता है, किन्तु 'निष्कल' और 'सकल' जितने एक-दूसरे के निकट हैं, 'निर्गुण' और 'सगुण' नहीं । निष्कल और सकल दोनों हो स्वप्रयास से कर्मों का क्षय कर निष्कल और सकल बन पाते हैं । प्रत्येक 'निष्कल' पहले 'सकल' बनता है । बिना शरीर धारण किये और बिना केवलज्ञान उपलब्ध किये कोई भी जीव 'निष्कल' नहीं बन सकता । केवलज्ञानने निष्कल और सकलको एक-दूसरेके समीपतम पहुँचा दिया है ।
'निर्गुण' और 'सगुण' में बृहदन्तर होनेके कारण हो हिन्दी के भक्ति काव्य मे दो पृथक् प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं। डॉ० पोताम्बरदत बड़थ्वालने उन्हें 'निर्गुण
१. योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, ब्रह्मदेवकी टीका सहित ११२५, पृ० ३२ ।
२. 'परम औदारिक शरीर' का अर्थ है अन्तिम स्थूल शरीर, अर्थात् अन्य इसे स्थूल शरीरके उपरान्त फिर कोई शरीर धारण नहीं करेंगे।