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________________ : 2: जैन भक्ति : प्रवृत्तियाँ 'निष्कल' और 'सकल' आचार्य योगीन्दुने 'परमात्मप्रकाश' में भगवान् 'सिद्ध' को 'निष्कल' कहा है। व्याख्यामे ब्रह्मदेव ने लिखा है, "पञ्चविधशरीररहितः निष्कलः ।"" सिद्ध शरीररहित होकर 'सिद्धि' में विराजते है । ज्ञानकी दृष्टिसे सिद्ध और बुद्ध आत्मामें अन्तर नहीं है, किन्तु 'सिद्ध' मोक्षमे और शुद्ध आत्मा देहमें रहती है । आचार्य कुन्दकुन्दने दोनों ही पूज्य कहा है। शरीररहित होनेसे वे निराकार होते हैं। शुद्ध आत्मा देहमें रहती अवश्य है, किन्तु स्वयं देहधारी नहीं है । अर्हन्त 'सकल' ब्रह्म कहलाते है | अर्हन्त वह हैं, जिन्होंने चार घातिया कर्मोंका नाश करके परमात्मपद पा लिया है; किन्तु अघातिया कर्मोके क्षय होने तक उन्हें इस संसार में रुकना है । संसारमें रुकनेका अर्थ है शरीरका बना रहना । अर्हता परम औदारिक शरीर होता है । वे सशरीरी कहलाते हैं । 'निष्कल' और 'सकल' मे अशरीरी और 'सशरीरी' के अतिरिक्त और कोई भेद नहीं है । दोनों ही आत्मा परमात्मतत्त्वकी दृष्टिसे समान है । ब्रह्मत्वकी दृष्टिसे 'निर्गुण' और 'सगुण' में भी समानता है, किन्तु 'निष्कल' और 'सकल' जितने एक-दूसरे के निकट हैं, 'निर्गुण' और 'सगुण' नहीं । निष्कल और सकल दोनों हो स्वप्रयास से कर्मों का क्षय कर निष्कल और सकल बन पाते हैं । प्रत्येक 'निष्कल' पहले 'सकल' बनता है । बिना शरीर धारण किये और बिना केवलज्ञान उपलब्ध किये कोई भी जीव 'निष्कल' नहीं बन सकता । केवलज्ञानने निष्कल और सकलको एक-दूसरेके समीपतम पहुँचा दिया है । 'निर्गुण' और 'सगुण' में बृहदन्तर होनेके कारण हो हिन्दी के भक्ति काव्य मे दो पृथक् प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं। डॉ० पोताम्बरदत बड़थ्वालने उन्हें 'निर्गुण १. योगीन्दु, परमात्मप्रकाश, ब्रह्मदेवकी टीका सहित ११२५, पृ० ३२ । २. 'परम औदारिक शरीर' का अर्थ है अन्तिम स्थूल शरीर, अर्थात् अन्य इसे स्थूल शरीरके उपरान्त फिर कोई शरीर धारण नहीं करेंगे।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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