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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य
१८१ ५० मील दूर गुजरातको ओर अवस्थित है। हुएनसांगके समयमें यह नगर गुर्जर देशको राजधानी था। बनारसीदास और उनका सम्प्रदाय
बनारसीदासजीका जन्म श्वेताम्बर सम्प्रदायमें हुआ था, किन्तु न वे श्वेताम्बर थे और न दिगम्बर । उस समय आगरेमें अध्यात्मियोंकी एक सैली या गोष्ठी थी, जिसमें सदैव अध्यात्म चर्चा हुआ करती थी । बनारसीदास उसीके सदस्य थे।
'समयसार'की राजमलजी कृत बाल-बोध टीका पढ़कर, बनारसीदासको अध्यात्म चर्चामे जो रुचि उत्पन्न हुई थी, वह वि० सं० १६९२ में पाण्डे रूपचन्दजीसे गोमट्टसार' पढ़नेके उपरान्त परिष्कृत हुई। परिणामस्वरूप वे अध्यात्म मतके पक्के समर्थक बन सके। यद्यपि बनारसीदाससे पहले ही आगरेमें अध्यात्मियोंको सैली थी, किन्तु उनके आनेके बाद उसमें स्थायित्व आया।
बनारसीदासके पांच साथी थे, पं० रूपचन्द, चतुर्भुज, भगवतीदास, कुअरपाल और धर्मदास। ये सब दिन और रात केवल अध्यात्म चर्चा ही नहीं करते थे, किन्तु तदनुरूप साहित्य-सृजन भी करते थे। बनारसीदास और उनके इस साहित्यिक दलने अध्यात्मवादको अनुभूतिमय काव्यका रूप दिया। जिससे उसमें स्थायित्व तो आया हो, आकर्षण भी उत्पन्न हुआ। बनारसीदासके बादका समूचा जैन-हिन्दी साहित्य उनके काव्योंको अन्तश्चेतनासे प्रभावित है। बनारसीदासका दो सन्तोंसे मिलन
कहा जाता है कि बनारसीदासजीको महात्मा तुलसीदाससे भेंट हुई थी। तुलसीदासजीने रामायणको एक प्रति बनारसीदासजीको दी थी, और उन्होंने 'विराजे रामायण घट माहि' पद की रचना कर रामायणके प्रति श्रद्धा प्रदर्शित की थी। तुलसीदासजीका स्वर्गवास वि० सं० १६८० में हुआ था, उस समय बनारसीदासको अवस्था ३७ वर्षकी थी। दोनोंकी भेंट होना असम्भव तो नहीं है। पं० नाथूरामजी प्रेमीका कथन है, "यदि गोस्वामी तुलसीदाससे साक्षात् होनेकी बात सच होती तो उसका उल्लेख 'अर्द्धकथानक' में अवश्य होता।" हो सकता है कि इस घटनाको गौण समझकर ही उन्होंने अपने जीवनवृत्तमें कोई स्थान न
१. वही, पृष्ठ ३७॥ २. नाटक समयसार, बुद्धिलाल आवककी हिन्दी-टीकासहित, जैन ग्रन्थरत्नाकर
कार्यालय, बम्बई, वि० सं० १९८६, प्रशस्ति, पद्य २६-२७, पृष्ठ ५३७ । ३. यह पद बनारसी-विलास, जयपुर, १६५४ ई०, पृ० २३३पर संकलित है। ४. भर्द्धकथानक, भूमिका, पृ०१२ ।