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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
बनारसीदासकी शिक्षा-दीक्षा
आठ वर्षकी अवस्थामे बनारसीदास चटशालामे विद्या ग्रहण करने जाने लगे। वहीं गुरुके पास वे एक वर्षमे ही लिखना पढ़ना सीख गये । इसके पश्चात् १४ वर्षके होनेपर उन्होंने पण्डित देवदत्तके पास विद्याभ्यास किया, और नाममाला, अनेकार्थ, ज्योतिष, अलंकार, कोकशास्त्र और चार सौ फुटकर श्लोक पढ़े। इसी समय जोनपुर मे उपाध्याय अभयधर्मजी आये, उनके साथ मानुचन्द्र और रामचन्द्र नामके दो शिष्य भी थे। मुनि भानुचन्द्रसे बनारसीदासका स्नेह हो गया, और वे उनके पास विद्याध्ययन करने लगे । मुनिजीसे उन्होंने पंचसन्धि, छन्द, कोश, जैन स्तवन, सामायिक तथा प्रतिक्रमणादि पाठ सीखे । इनके प्रति बनारसीदासजीको अगाध श्रद्धा थी । उन्होने अपनी प्रत्येक रचनामें यहांतक कि 'नाटक समयसार ' में भी उनका स्मरण किया है। बनारसीदासकी कवि-प्रतिभा जन्मजात थी । उन्होंने १५ वर्षकी अल्पायुमें एक 'नवरस' रचना लिखी, जिसमें 'आसिखोका विशेष वरनन' था । उसमें एक हजार दोहा चौपाई थे । श्रेष्ठ ज्ञान होनेपर उन्होंने यह रचना गोमतीमें प्रवाहित कर दी। इससे उनकी कवित्वशक्तिका परिचय तो मिलता ही है ।
बनारसीदासका वंश और गोत्र बनारसीदासका वंश श्रीमाल और गोत्र बिहोलिया था। इनकी उत्पत्तिके विषयमें बनारसीदासने लिखा है, "रोहतक के पास बिहोली नामका गाँव था, जिसमें राजवंशी राजपूत रहते थे । वे सब एक जैन गुरुके उपदेशसे जैन हो गये । णमोकार मन्त्रको माला पहननेके कारण उनके कुलका नाम श्रीमाल पड़ा । वहाँके राजाने उनके गोत्रका नाम 'बिहोलिया' रख दिया ।" इसपर टिप्पणी करते हुए पं० नाथूराम प्रेमीने लिखा है, "इसमे इतना तो ठीक मालूम होता है कि बिहोली गांवके कारण इनका गोत बिहोलिया हुआ, जैनोंके अधिकांश गोत्रोंके नाम स्थानोंके कारण ही रखे गये हैं, परन्तु समग्र श्रीमाल जातिके उत्पत्ति-स्थानके विषयमें वे कुछ नहीं कहते ।”” पण्डित प्रेमीकी दृष्टिमें श्रीमाल जातिको उत्पत्ति श्रीमाल स्थानसे हुई, जो अब भिन्नमाल कहलाता है । इसके खण्डहर अहमदाबादसे अजमेर जानेवाली रेलवे लाइनपर पालनपुर और आबू स्टेशनसे लगभग
१. कथानक, दोहरा ८-१०, ५० २ | २. अर्थकथानक, परिशिष्ट, पृ० ११८ । ३. वही, पृष्ठ ११८ ।