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________________ जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य कवि बनारसीदासजीके पितामह श्री मूलदासजी हिन्दी और फ़ारसीके विद्वान् थे। नरवरके नवाबने उन्हें अपना मोदी नियुक्त किया था। वि० सं० १६०८ सावन सुदी ५ रविवारके दिन मूलदासके घर पुत्र-जन्म हुआ । उसका नाम खड़गसेन रखा गया। वि० सं० १६१३ मे मूलदासका स्वर्गवास हो गया । उनकी धन-सम्पत्ति नवाबने ले ली। मां-बेटे जौनपुरमे आकर रहने लगे। वहाँ खड़गसेनको ननसाल थी। नाना मदनसिंह चिनालिया जौनपुरके प्रसिद्ध जौहरी थे। उस समयका जौनपुर अधिक समृद्धिशाली था। वहां हीरे-जवाहरातका बहुत ऊंचा व्यापार होता था। वह चार कोसमें बसा हुआ था। उसमें ५२ बाजार थे। इस नगरको पठान जौनसाहने बसाया था । बनारसीदासके समयमें जौनपुरका नवाब कुलीचरण था, जिसके अत्याचारसे प्रपीड़ित होकर जौहरी इधर-उधर भाग गये थे। ___ खड़गसेनजी बड़े होकर आगरेमे आये और सुन्दरदासजीके साथ व्यापार करने लगे। इसके पूर्व वे कुछ समय तक बंगालके सुलतान लोदीखांके पोतदार भी रहे थे। सुन्दरदासके साझेमें व्यापार खूब चला। उसी समय इनका विवाह मेरठके सूरदास श्रीमालकी पुत्रीसे हो गया। प्रथम पुत्रके स्वर्गवासी होनेपर उन्होंने रोहतकके पासको 'सती माता' की जात को । दो बार जात करनेपर उनके सं० १६४३ माघ सुदी एकादशो रविवारके दिन एक पुत्रका जन्म हुआ, जिसका नाम विक्रमाजीत रखा गया। छह मासके बालकको लेकर वे भगवान् पार्श्वनाथकी पूजा करनेके लिए बनारस गये। वहां उनकी प्रार्थनापर पुजारीने आशी र्वाद दिया, "भगवान् पार्श्वप्रभुके यक्षने मुझसे प्रत्यक्ष होकर कहा है कि इस बालकको कोई चिन्ता नहीं रहेगी, यदि पार्श्व-प्रभुके जन्म-स्थानके नामपर इसका नाम रखा जायेगा।" उसके निर्देशानुसार विक्रमाजीत बनारसीदास हो गये। ___ ग्यारह वर्षकी उम्रमें अर्थात् वि० सं० १६५४ माघ सुदी १२ को खैराबादके कल्याणमलकी पुत्रीके साथ उनका विवाह हुआ। जिस दिन पुत्र-वधू घरमें आयी, उसी दिन खड़गसेनकी दूसरी पुत्रीका जन्म और नानीका मरण हुआ। तोनों काम एक साथ किये गये। बनारसीदासजीके तीन विवाह हुए, जिनमें से प्रथम दो क्रमशः स्वर्गवासिनी हो गयीं। बनारसीदासजीके नौ बालक जनमे, सभी काल-कवलित हो गये । उनमें दो लड़कियां और सात लड़के थे। उसपर बनारसीदासजीने यह कहकर सन्तोष धारण किया, "तत्व दृष्टि जो देखिए, सत्यारथ की माँ ति। ज्यों जा को परिगह घटै, त्यौ ता कौं उपसांति ॥"
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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