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________________ हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि कनककीरति गुण गावै रे भाई अरिहंत नांव हियै धरौ। अब लीयो जाय तोलीज्यो रे माई जिन को नांव सदा मलो ॥" एक दूसरे पदमें अपने देवको अनुपम कहते हुए कविने लिखा है, "तुम माता तुम तात तुमही परम धणी जी । तुम जग संचा देव तुम सम और नहीं जी ॥ तुम प्रभु दीनदयालु मुझ दुष दूरि करो जी। लीजै मोहि उबारि मैं तुम सरण गही जी॥ संसार अनंतन ही तुम ध्यान धरो जी। तुम दरसन बिन देव दुरगति माहि रूल्यो जी ॥२ कर्म घटावलि इसकी प्रति जयपुरके बधीचन्दजीके दि० जैन मन्दिरमें गुटका नं० १०८ मे सुरक्षित है। इसमें जैन धर्मानुसार आठ कर्मोका बुरा प्रभाव दिखाया गया है। एक पद्यमें कविने लिखा है कि अपने आराध्यमे प्रेम-निष्ठ होनेसे यह जीव भवसमुद्रके पार पहुँच जाता है, "भ्रम्यौ संसार अनंत न तुम भेद लहयो जी। तुम स्यौ नेह निवारि परस्यौ नेह कीये जी ॥ पडता नरक मझारि अब उधारि करो जी। तुम स्यौ प्रेम करेरा ते संसार तिरे जी॥ कनककीरति करि भाव श्री जिन मगति रुचे जी। पढ़ सुन नर नारि सुरगा सुष लहो जी ॥" ५३. कवि बनारसीदास (जन्म वि० सं० १६४३, मृत्यु वि० सं०१७००) पारिवारिक जीवन बनारसीदासका लिखा हुआ 'अर्द्धकथानक है, जिसके आधारपर यहाँ उनका जीवनवृत्त प्रस्तुत किया जा रहा है। प्राचीन और मध्यकालीन साहित्यमें 'बईकथानक' पहला 'आत्मचरित' माना जाता है । १. मन्दिर वीचन्दनीवाली प्रति । २. मन्दिर छावड़ोंवाली प्रति । ३. प्रकथानक, पं० नाथूराम प्रेमी-द्वारा सम्पादित होकर, संशोधित साहित्यमाला बम्बई से अक्टूबर १६५७ में पुनः प्रकाशित हो चुका है।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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