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हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि
कवि बनारसीदासके 'नाटक समयसार' में भी उत्तम उत्प्रेक्षाओंका प्रयोग हुआ
है । विनश्वर शरीरपर कल्पना करते हुए कविने लिखा है, "ठौर ठौर रकवि के कुण्ड केसनि के झुण्ड,
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हाड़नि सों भरी जैसे थरी है चुरैल की । थोरे से धक्का लगे ऐसे फट जाय मानों कागद की पूरी कीधी चादर है चैल की ॥
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जैन कवियोंकी रचनाओंमें 'रूपक' अलंकारोंका भी प्रयोग हुआ है । उन्होने उपमेयमें उपमानका आरोप कुशलतासे किया है । कवि बनारसीदासने प्रस्तुत और अप्रस्तुतका केवल रूपसादृश्य ही नही दिखाया, किन्तु प्रस्तुतके भावको भी तीव्र किया है। कायाको चित्रशालामें कर्मका पलंग बिछा है । उसपर अचेतनताकी नींदमे चेतन सो रहा है,
" काया की चित्रचारी में करम परजंक भारी,
माया की संवारी सेज चादर कलपना | शैन करै चेतन अचेतन नीद लिये,
मोह की मरोर यहै लोचन को ढपना ॥ उदै बल जोर है श्वास को शब्द घोर,
विषै सुखकारी जाकी दौर यही सपना | ऐसी मूढ़ दशा में मगन रहे तिहुँ काल
धावे भ्रम जाल में न पावे रूप अपना ॥ २" भैया भगवतीदासके रूपकोंमें ओज है । कायाकी नगरीमे चिदानन्दरूपी राजा राज्य करता है । वह माया-सी रानीमे मग्न रहता है । उसके पास मोहका फ़ौजदार, क्रोधका कोतवाल और लोभका वज़ीर है ।
"काया सी जु नगरी में चिदानंद राज करै, माया सी जु रानी पै मगन बहु भयो है । मोह सो है फौजदार क्रोध सो है कोतवार, लोभ सो वजीर जहां लूटिबे को रह्यो है ॥ उदै को जुकाजी माने, मान को अदल जानै, काम सेवा कान वीस श्राइ वाको को है ।
१. नाटक समयसार, प्राचीन हिन्दी जैन कवि, जैन साहित्य सम्मेलन, दमोह, पृ० ६७ । २. बनारसीदास, नाटकसमयसार, बुद्धिलाल श्रावककी टोकासहित, जैन ग्रन्थ रत्ना - कर कार्यालय, बम्बई, ७११४, पृ० १७५-१७६ ।