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जैन भक्ति-काव्यका कला-पक्ष
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ऐसी राजधानी में अपने गुण भूलि गयो, सुधि जब आई तबै ज्ञान भइ गहयो है ॥ भूधरदासने भी अनेक रूपकोंका निर्माण निया है । मन सूआ है, और भगवान् जिनेन्द्रके पद पिंजड़ा। इस मनरूपी सूएने संसारके अनेक वृक्षोके कड़वे फलोंको तोड़-तोड़कर चखा है, किन्तु उनसे कुछ हुआ नहीं। फिर भी वह निश्चिन्त है । भगवान्के चरणरूपी पिजड़ेमे नहीं बसता । कालरूपी वन-बिलाव उसको ताक रहा है, वह अवसर पाते ही दाब लेगा फिर कोई न बचा सकेगा। भूधरदासका एक अन्य पद, "सुनि ठगनी माया, तै सब जग ठग खाया" मे प्रसिद्ध रूपक है ।
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जैन कवियोंने प्रतिपाद्य विषयको प्रभावशाली बनानेके लिए नवीन उपमानोंके उदाहरण दिये है । उन्होंने परम्परागत उपमानोंको भी स्वीकार किया है, किन्तु बहुत कम । उनकी निजी अनुभूतियोने नयी कल्पनाओंको जन्म देकर वर्ण्य विषयके सौन्दर्यको बढ़ाया है । जैन कवियोंके 'उदाहरण' अलंकारकी एक पृथक् ही शोभा है । कवि बनारसीदासका एक उदाहरणालंकार इस प्रकार है ।
" जैसे निशिवासर रहें पंक ही में, पंकज कहावै पै न वाके ढिंग पंक है । जैसे मन्त्रवादी विषधर सों गहावें गात, मंत्र की शकति वाके बिना विष डंक है । जैसे जीम गहे चिकनाई रहे रूखे अंग, पानी में कनक जैसे काई से अटक है । तैसे ज्ञानवान नाना भांति करतुति ठानै, किरिया तैं न माने मोते निकलंक है ॥ ,,
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१. भैया भगवतीदास, शतमष्टोत्तरी सवैया, २हवाँ, ब्रह्मविलास, सन् १६२६ ई०, जैन
ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, पृ० १४ ।
२. मेरे मन सूवा, जिनपद पींजरे वसि यार लाव न बार रे ॥
संसार मे बलबूच्छ सेवत, गयो काल अपार रे । विषय फल तिस तोड़ि चाखे, कहा देख्यो सार रे ॥ तू क्यों निचिन्तो सदा तोकों, तकत काल मंजार रे । दावे अचानक आन तब तुझे, कौन लेय उबार रे ॥ भूधरदास, भूधरविलास, कलकत्ता, ५वाँ पद, पृ० ३-४ । ३. वही, वॉ पद, पृ० ५ ।
४. बनारसीदास, नाटकसमयसार, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई, ७५,
पृ० १६७-१६८ ।