SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन भक्ति काव्यका कला-पक्ष कवि द्यानतरायने चित्तको चकोर और जिनेन्द्रको चन्द्र, तथा अपने पापोंको उरग और प्रभुके नामको मोर माना है, " मवि ! पूजौ मन वच श्री जिनेन्द्र, चित चकोर सुख करन इन्द | कुमति कुमुदिनी हरन सूर, विधन सघन वन दहन भूर ॥ भवि० ॥ पाप उ प्रभु नाम मोर, मोह महातम दलन भोर ॥ भवि० ॥ भूघरदासकी रचनाओं में उत्प्रेक्षाओको अधिकता है । एक स्थानपर उन्होने लिखा है कि भगवान् आदिनाथके चरणोंपर देवगण भाल झुका रहे है, तो वह मानो अपने कुकर्मोकी रेखा मेटना चाहते हैं, २,, "अमर समूह आनि अवनी सौं घसि घसि सीस प्रनाम करै हैं । किधौं माल कुकरम की रेखा, दूर करन की बुद्धि घरे हैं ॥ सुरासुर राजा भगवान् शान्तिनाथके चरणोंपर अपना भाल झुकाकर प्रणाम कर रहे है । उनके भालपर नील मणिसे जड़े हुए मुकुट लगे है । भालके साथ-साथ वे 'मुकुट भी झुकते है, और उनके साथ नील मणियां भी, तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे मानो भगवान्के चरण-कमलोंकी सुगन्धिको सूंघनेके लिए भौरोंकी पंक्ति ही चली आयी है, "सेवत पाय सुरासुर राय, नमैं शिर नाय महीतल ताई ॥ मौलि लगे मनि नील दिपैं प्रभु के चरणों झलके वह झाईं । सूंघन पाय सरोज-सुगन्धि, किधौं चलि ये अलि पङ्कति श्राई ॥ " पाण्डुक शिलापर भगवान् पार्श्वप्रभुका क्षीरोदधिके जलसे स्नान किया जा रहा है। स्नपनका जल आकाशमे उछल उठा, तो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे कि वह पापरहित होकर ऊर्ध्व दिशामें जा रहा है। स्नानके उपरान्त भगवान्के शरीरपर शचीने कुंकुमादिका लेप किया । वह मानो नीलगिरिपर सांझ फूली हो ।' ५ ४४७ १. द्यानतराय, द्यानतविलास, कलकत्ता, ४हवाँ पद, पृ० २१ । २. भूधरदास, जैनशतक, कलकत्ता, आदिनाथ स्तुति सवैया, पहला पद्य, पृ० १ | ३. वही, छठाँ पद्य, पृ० २ ॥ ४. चली न्हैन के नीर की छटा नभ माहि । स्वामी संग अघ बिन भई क्यों नहिं करध जाहि ॥ भूधरदास, पार्श्वपुराण, कलकत्ता, षष्ठोऽधिकारः, पृ० ५२ ॥ ५. अब इन्द्रानी जिनवर अंग, निर्जल कियो वसन शुचि संग । कुंकुमादिलेपन बहु लिये, प्रभु के देह विलेपन किये ॥ इहि शोभा इस औसर मांझ, किधों नीलगिरि फूली सांझ । वही, षष्ठोऽधिकारः, पृ० ५३ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy