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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
कवियोंका अनुप्रासोपर एकाधिकार था। कवि बनारसीदासकी अनेक रचनाओं में अनुप्रासोका सुन्दर प्रयोग हुआ है । 'नाटक समयसार का एक पद्य देखिए, " रेत की-सी गढ़ी किधों मढ़ी है मसान की-सी,
अन्दर अंधेरी जैसी कन्दरा है सैल की । ऊपर की चमक दमक पटभूखन की,
धोखे लागे भली जैसी कली है कनैल की । aratड़ी महा मौंड़ी मोह की कनोंड़ी,
माया की मसूरति है मूरति है मैल की । ऐसी देह याहि के सनेह याकी संगति सों,
है रही हमारी मति कोलू के से बैल की ।। " " भैया भगवतीदासने अपना पूरा 'परमात्म शतक' यमक अलंकार में लिखा
है । उसके दो पद्य देखिए,
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"पीरे होहु सुजान पीरे कारे है रहे ।
पीरे तुम बिन ज्ञान पीरे सुधा सुबुद्धि कहँ ।'
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“मै न काम जीत्यो बली, मै न काम रसलीन ।
मैन काम अपनो कियो, मै न काम आधीन ॥ ३
हिन्दीके जैन -काव्योंमें अनेक अर्थालंकारोंका प्रयोग हुआ है। उनमें भी उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक और श्लेषमें सौन्दर्य अधिक है । जैन कवियोने सादृश्यमूलक अलकारोंकी योजना केवल स्वरूप मात्रका बोध करानेके लिए नहीं की, अपितु उपमेयके भावको सुन्दरता के साथ अभिव्यक्त करनेके लिए की है । कवि बनारसीदास ने एक पदमें आँखोंको चातक और निरंजननाथको घनकी बूंद बनाया है,
"कब रूचि सौं पीवैं हग चातक, बूंद अखयपद घन की । कब शुभ ध्यान धरौं समता गहि करूं न ममता तन कीँ ॥"
१. नाटक समयसार, बुद्धिलाल श्रावककी टीकासहित, हिन्दी जैन ग्रन्थरत्नाकर कार्यालय, बम्बई, ८४०, पृ० २५२-२५३ ।
२. इसमें प्रथम 'पीरे' का अर्थ प्यारे, द्वितीयका 'पीले', तृतीयका 'पीडित' और चतुर्थका 'पियो' है ।
३. पहले 'काम' का अर्थ है 'कामदेवको नहीं', दूसरे 'नकाम' का अर्थ है व्यर्थ, तीसरेका 'कार्य नहीं किया', और चौथेका 'कामदेवके अधीन नही हूँ' । वही, वाँ दोहा, पृष्ठ २८० ॥
१९५४ ई०,
४. बनारसीदास, अध्यात्मपदपंक्ति, १३वाँ पद, बनारसीविलास, जयपुर, पृ० २३१ ।