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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
तीसरे ज्ञानभूषण अटेरशाखाके अन्तर्गत हुए हैं । इस शाखाका प्रारम्भ भट्टारक सिंहकीत्तिसे हुआ था । उन्होने अनेक मूर्तियोकी प्रतिष्ठा करायी थी । उनका समय वि० सं० १५२० सिद्ध है । उनके बाद धर्मकीत्ति और तत्पश्चात् शीलभूषण भट्टारक हुए। ज्ञानभूषण शीलभूपणके अनेक शिष्योमे प्रमुख थे, अतः उनके उपरान्त ज्ञानभूषण ही भट्टारक बने । 'ज्योतिप्रकाश' के एक उल्लेखसे पता चलता है कि उन्होंने चिरकालसे लुप्त हुए जैन तिथि-पत्रकी पद्धतिको प्रकट किया था । वे १७वी शती ( विक्रम ) के द्वितीय पादमे हुए थे ।
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चौथे ज्ञानभूषण नागौर शाखाके भट्टारक रत्नकीत्ति (द्वितीय) के पश्चात् भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित हुए थे। रत्नकीर्त्तिका समय वि० सं० १७४५ से १७६६ तक माना जाता है, अतः ज्ञानभूषणका समय इसके उपरान्त ही माना जा सकता है । उन्होने कतिपय मूर्तियोंकी प्रतिष्ठाके अतिरिक्त कोई साहित्यिक कार्य नही किया ।
यहाँ सम्बन्ध प्रथम ज्ञानभूषणसे है, जिन्होने हिन्दीमे 'आदीश्वर फागु'४ की रचना की थी । इनके पूर्व जिनपद्मसूरिका 'थूलभद्दफागु' और राजेश्वरसूरिका 'नेमिनाथफागु' बन चुके थे । 'फागु' एक प्रकारका लोकगीत है । यह प्रायः वसन्तमे गाया जाता था । आगे चलकर उसका प्रयोग किसोके भी आनन्द- वर्णन और सौन्दर्य निरूपणमे होने लगा । जैन हिन्दी कवियोंने भगवान् जिनेन्द्रकी
१. सं० १५२० वर्षे आषाढ़ सुदी ७ गुरौ श्री मूलसंघे भ० श्री जिनचन्द्र तत्पट्टे भ० श्री सिंहकीर्ति लंबकंचुकान्वये अउली वास्तव्ये साहु श्री दिपो भार्या इंदा इष्टिकापथ प्रतिष्ठितं ॥
जैनसिद्धान्तभास्कर में प्रकाशित प्रतिमा लेख संग्रह, पृ० १३ । भट्टारक सम्प्रदाय, लेखांक ३०३ |
२. श्रीजैन दृष्टितिथिपत्रमिह प्रणष्टं
स्पष्टीचकार भगवान् करुणाधुरीणः । बालावबोधविधिना विनय प्रपद्य श्रीज्ञानभूषण गणेशमभिष्टुमस्तम् ॥
भट्टारक संप्रदाय, लेखांक ३१६ ।
३. नागौरके पट्टाधीशोंकी प्रकाशित नामावली, जैनसिद्धान्तभास्कर १, पृ० ८०, भट्टारक सम्प्रदाय, पाद टिप्पण ५३ ।
४. इसकी एक हस्तलिखित प्रति ( वि० सं० १६३४ ), श्रमेरशास्त्र भण्डार जयपुरमें क्रमसंख्या ६५ पर मौजूद है। यह मालपुरा में पाण्डे श्री डूगाकी प्रेरणासे लिखी गयी थी ।