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जैन भक्त कवि : जीवन और साहित्य १७. भट्टारक ज्ञानभूषण (वि० सं० १५७२)
ज्ञानभूषण नामके चार भट्टारक हुए हैं। चारों ही मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणसे सम्बन्धित थे, किन्तु उनकी शाखाएं भिन्न-भिन्न थीं। प्रथम ज्ञानभूषण ईडर शाखाके भट्टारक सकलकीत्तिके प्रशिष्य और भुवनकात्तिके शिष्य थे। 'जैन धातुप्रतिमा-लेखसंग्रह' से प्रकट है कि वे सागबाड़े ( बागड़ ) को गद्दीपर वि० सं० १५३२ से १५५७ तक आमीन रहे। तदुपरान्त अपने शिष्य विजयकोत्तिको भट्टारकीय पदपर प्रतिष्ठित कर स्वयं अध्यात्मरसमें मग्न रहने लगे । वे गुजरातके रहनेवाले थे। उनकी ख्याति चतुर्दिक्मे व्याप्त थी। उन्होने केवल मन्दिरोंका निर्माण, मूत्तियोंकी प्रतिष्ठा और विविध तीर्थक्षेत्रोंकी यात्राएँ ही नहीं की, अपितु विभिन्न देशोंकी जनताको आध्यात्मिक रसका पान भी कराया। वे व्याकरण, छन्द, अलंकार, साहित्य, तर्क और अध्यात्म आदि शास्त्ररूपी कमलोंपर विहार करनेके लिए राजहंस थे और शुद्ध ध्यानामृतकी उन्हे लालसा थी। 'परमार्थोपदेश', 'आत्मसम्बोधन' और 'तत्त्वज्ञानतरंगिणी' उनकी विद्वत्ताके द्योतक है । गुजरातो उनकी मातृभाषा थी। उन्होंने हिन्दीमें 'आदीश्वरफागु' की रचना की थी।
दूसरे ज्ञानभूषण वे थे, जिनका सम्बन्ध सूरत शाखासे था। उनकी गुरुपरम्परा इस प्रकार मानी जाती है : देवेन्द्रकीति (वि० सं० १४९३ ), विद्यानन्दि (१४९९-१५३७ ), मल्लिभूषण (१५४४-१५५५), लक्ष्मीचन्द (१५५६१५८२), वीरचन्द ( १५८३-१६००)। ज्ञानभूषण वीरचन्दके शिष्य थे। उनके पश्चात् ज्ञानभूषण ही भट्टारक बने और वि० सं० १६०० से १६१६ तक भट्टारक पदपर प्रतिष्ठित रहे। उन्होंने 'जीवन्धररास', 'सिद्धान्तसारभाष्य', 'कम्मपयडी टीका' और 'पोषह रासका' निर्माण किया था। १. संवत् १५४२ वर्षे ज्येष्ठ सुदि ८ शनो श्रीमूलसंधे......॥
सकलकीति तत्पट्टे भ० श्री भुवनकीति तत्पट्टे भ० श्री ज्ञानभूषण गुरूपदेशात् जागडा पोरवाड ज्ञातीय स० वाजु मनोजु"""॥
अनेकान्त, वर्ष ४, पृ० ५०२ । २. श्री बुद्धिसागरमूरि, जैन धातुप्रतिमा-लेखसंग्रह, प्रथम भाग, ५६७, ६७२ और
१५०६ प्रतिमा लेख। ३. नन्दिसंघ पट्टावली, जैनसिद्धान्तभास्कर, चौथी किरण, पृ० ४३-४५ । ४. भट्टारक सम्प्रदाय, जोहरापुरकर सेम्पादित, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर,
वि० सं० २०१४, पृ० १६३-१६७। ५. श्री परमानन्द शास्त्री, पोषहरास और भट्टारक शानभूषण, अनेकान्त, वर्ष १३,
किरण ४-५, पृ० ११६ ।