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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि महाराजा मानसिंह ग्वालियरके राजा थे। कविने महाराजाके विषयमे लिखा है कि महाराज मानसिंहका धैर्य, भुजबल और साहस जग-प्रसिद्ध था। उसके राज्यमे सब सुखी थे, और राजाके समान ही प्रजा भी सुखोंका उपभोग करती थी। उनके राज्यमे जैनधर्मका भी बहुत प्रकारसे प्रसार हो रहा था। प्रत्येक श्रावक प्रतिदिन, छह आवश्यक कर्मोका अनिवार्य रूपसे सम्पादन करता था। कवि चतरुमल भी, जैन-धर्ममे निष्ठा रखते हुए भगवान् नेमीश्वरके गीत गाते थे। नेमीश्वर गीत
यह एक छोटा-सा गीत है। इस गीतका सम्बन्ध भगवान् नेमीश्वर और राजुलके प्रसिद्ध कथानकसे है। प्रारम्भमें ही कविने, अपने भक्ति-पूर्ण भावोंको प्रकट करते हुए, लिखा है कि भगवान् जिनेन्द्रको नमस्कार करनेवाला जीव भवसमुद्रसे पार हो जाता है, पंचगुरुओंको प्रणाम करनेसे मुक्ति मिलती है, शारदाको मनानेसे अपार बुद्धि उपजती है, और जादौराय भगवान् नेमीश्वरके गीत गानेसे गुरु गौतम प्रसन्न होते है।
अन्तमें भी लिखा है कि इस गीतको पढ़ने और सुननेसे ज्ञान उत्पन्न होता है। प्रत्येक जीवका कर्तव्य है कि मनको निश्चय करके नेमीश्वरकी भक्तिमें लगाये,
"पढत सुनत जी उपज्यै ग्यान, मन निहचल करि जिय धरहु । राजमती जिन संजमु लियौ, नेमी कुंवर नेमी सयल मवी नयौ ।
नेमि कुंवर नेमि जिन बंदि है।" १. नेमि""देसु सुख सयल निधान, गढ़ गोपाचलु उत्तिम ठान ।
एक सोवनका लंका जसि, तो वरु राउ सबल वरवीर । भुव बल आयु जु साहस धीर, मानसिंह जम जानिये । ताके राज सुखी सब लोगु, राज समान करहिं दिन भोगु । जैनधर्म बहु विधि चल, श्रावग दिन जु करै षटकर्म । निहचे चितु लावहि जिनधर्म, नेमि कुंवर नेमि जिन वंदि है। नेमीश्वरगीत, पद्य १। २. प्रथम चलन जिन स्वामि जुहारु, ज्यों भव सायरु पावहि पार । लहइ मुकति दुति दुति तिरै, पंच परम गुरु त्रिभुवन सारु ॥ सुमिरत उपजै बुद्धि अपारु, सारद मनाविउ तोहि । गुरु गौतम मो दिउं पसीउ जो गुन गांउ जादुराइ ।