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जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष
बहा है, किन्तु उसकी आँखोंसे खूनके आँसू कभी नहीं ढुलके । हरी तो वह भी भर्तासे भेंटकर ही होगी, किन्तु उसके हाड़ सूखकर सारंगी कभी नही बने।
बारहमासा
नेमीश्वर और राजुलको लेकर जैन हिन्दी-साहित्यमे बारहमासोंकी भी रचना हुई है। उन सबमे कवि विनोदोलालका 'बारहमासा' उत्तम है । प्रियाको प्रियके सुखके अनिश्चयकी आशंका सदैव रहती है, भले ही प्रिय सुखमे रह रहा हो । तीर्थंकर नेमीश्वर वीतरागी होकर, निराकुलतापूर्वक गिरनारपर तप कर रहे है, किन्तु राजुलको शंका है, "जब सावन मे घनघोर घटाएं जुड आयेंगी, चारों ओरसे मोर शोर करेंगे, कोकिल कुहुक सुनावेगी, दामिनी दमकेगी और पुरवाईके झोंके चलेंगे, तो वह सुखपूर्वक तप न कर सकेंगे।" पोषके लगने पर तो राजुलको चिन्ता और भी बढ गयो है। उसे विश्वास है कि पतिका जाड़ा बिना रजाईके नही कटेगा। पत्तोकी धुवनीसे तो काम चलेगा नहीं। उसपर भी कामकी फ़ौजें इसी ऋतुमें निकलती है, कोमल गातके नेमीश्वर उससे लड़ न सकेंगे। वैशाखको गरमीको देखकर राजुल और भी अधिक व्याकुल है, क्योंकि इस गरमीमे नेमीश्वरको प्यास लगेगी तो शीतल जल कहाँ मिलेगा? और तीव्र धूपसे तचते पत्थरोसे उनका शरीर ढक जायेगा। ___ कवि लक्ष्मीवल्लभका 'नेमि राजुल बारहमासा' भी एक प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल १४ पद्य है । प्रकृतिके रमणीय सन्निधानमे विरहिणीके व्याकुल भावोंका सरस सम्मिश्रण हुआ है, "श्रावणका माह है, चारों ओरसे विकट घटाएँ उमड़ रही है । मोर शोर मचा रहे है । आसमानमे दामिनी दमक रही है। यामिनीमे १. देखिए, भूधरविलास, १४वॉ पद, पृ० ६, और मिलाइए जायसीके नागमती विरह
वर्णनसे। २. पिया सावन मै व्रत लीजे नहीं, घनघोर घटा जुर आवैगी।
चहुँ ओर से मोर जु शोर करें, वन कोकिल कुहक सुनावैगी। पिय रैन अंधेरी में सूझै नहीं, कछु दामन दमक डरावैगी। पुरवाई को झोंक सहोगे नही, छिन में तप तेज छुड़ावैगी ।। कवि विनोदीलाल, बारहमासा नेमिराजुलका, बारहमासा संग्रह, जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, कलकत्ता, ४था पद्य, पृ० २४ । ३. वही, १४वॉ पद्य, पृ०२७। ४. वही, २२वॉ पद्य, पृ० २६ ।