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हिन्दी जैन मक्ति-काव्य और कवि
चाह है जिसके कारण लड़की माँसे प्रार्थना करते हुए भी नही लजाती । लौकिक प्रेम-प्रसंग में लज्जा आती है, क्योंकि उसमे 'काम' की प्रधानता होती है, किन्तु यहाँ तो अलोकिक और दिव्य प्रेमको बात है । अलौकिककी तल्लीनतामे व्यावहारिक उचित-अनुचित ध्यान नहीं रहता ।
राजुल के वियोग मे 'संवेदना' वाले पहलूकी ही प्रधानता है । भूधरदासने राजुल के अन्तस्थ विरहको सहज स्वाभाविक ढगसे अभिव्यक्त किया है । राजुल अपनी सखीसे कहती हैं, "हे सखी ! मुझे वहाँ ले चल जहाँ प्यारे जादोंति रहते है । नेमिरूपी चन्द्रके बिना यह आकाशका चन्द्र मेरे सब तन-मनको जला रहा है । उसको किरणें नाविकके तीरकी भाँति अग्निके स्फुलिंगोंको बरसाती है । रात्रि के तारे तो अंगारे ही हो रहे है ।”
"हाँ ले चल री ! जहाँ जादौंपति प्यारो ।
afe निशाकर बिन यह चन्दा, तन मन दहत सकल री ॥ तहाँ ० ॥ 1 ॥ fara faat arrase rर-तति कै, ज्यौं पावक की झलरी । तारे हैं अंगारे सजनी, रजनी राकस दल री ॥ तहाँ ० ॥२॥""
कही-कही राजुलके विरह में 'ऊहा' के दर्शन होते हैं, किन्तु उनमे नायिका के 'पेंडुलम ' हो जाने की बात नहीं आ पायी है, इसी कारण वह तमाशा बनने से बच गया है । यद्यपि राजुलका 'उर' भी ऐसा जल रहा है कि हाथ उसके समीप नही ले जाया जा सकता, किन्तु ऐसा नहीं कि उसकी गरमीसे जडकालेमे लुएं चलने लगी हों । राजुल अपनो सखीसे कहती हैं, "नेमिकुमार के बिना मेरा जिय रहता नहीं है । हे सखी ! देख मेरा हृदय कैसा तच रहा है, तू अपने हाथको निकट लाकर देखती क्यों नहीं । मेरी विरहजन्य उष्णता कपूर और कमलके पत्तोसे दूर नहीं होगी, उनको दूर हटा दे। मुझे तो 'सियराकलाघर' भी करूर लगता है । प्रियतम प्रभु नेमिकुमारके बिना मेरा 'हियरा' शीतल नही हो सकता ।"" पियके वियोगमे राजुल भी पीली पड़ गयी है, किन्तु ऐसा नहीं हुआ कि उसके शरीरमे एक तोला मांस भी न रहा हो । विरहसे भरी नदीमे उसका हृदय भी
१. भूषरदास, भूधरविलास, कलकत्ता ४५वाँ पद, पृष्ठ २५ ।
२. नेमि बिना न रहूँ मेरो जियरा ।
हेर रो हेली तपत उर कैसो, लावत क्यों निज हाथ न नियरा || मि० ॥ १ ॥ करि करि दूर कपूर कमल दल, लगत करूर कलाधर सियरा ॥ नेमि०॥२॥ भूधर के प्रभु नेमि पिया बिन, शीतल होय न राजुल हियरा || मि०॥३॥ वही, २०वॉ पद, पृ० १२ ।