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________________ जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष रचना वि० सं० १३३१ मे हुई थी। हिन्दीके कवि कुमुदचन्द्रका 'ऋषभविवाहला' भी ऐसी ही एक कृति है। इसमे भगवान् ऋषभनाथका दीक्षा-कुमारीके साथ विवाह हुआ है। श्रावक ऋषभदासका 'आदीश्वर वीवाहला' भी बहुत ही प्रसिद्ध है । विवाहके समय भगवान्ने जिस चुनडीको ओढ़ा था, वैसी चुनड़ी छपाने के लिए न जाने कितनी पत्नियां अपने पतियोसे प्रार्थना करती रही है । सोलहवी शताब्दीके विनयचन्द्रकी 'चूनड़ी' हिन्दी साहित्यको एक प्रसिद्ध रचना है। साधुक्रोतिकी 'चूनड़ी'मे तो सगीतात्मक प्रवाह भी है । तीर्थकर नेमीश्वर और राजुलका प्रेम नेमीश्वर और राजुलके कथानकको लेकर, जैन-हिन्दीके भक्त-कवि दाम्पत्यभावको प्रकट करते रहे है । राजशेखर सूरिने विवाहके लिए राजुलको ऐसा सजाया है कि उसमे मृदुल काव्यत्व ही साक्षात् हो उठा है। किन्तु वह वैसी ही उपास्य बुद्धिसे संचालित है, जैसे 'राधा-सुधानिधि में राधाका सौन्दर्य । राजुलको शील-सनी शोभामे कुछ ऐसी बात है कि उससे पवित्रताको प्रेरणा मिलती है, वासनाको नहीं। विवाहमण्डपमे विराजी वधू जिसके आनेको प्रतीक्षा कर रही थी, वह मूक-पशुओंके करुण-क्रन्दनसे प्रभावित होकर लौट गया। उस समय वधूकी तिलमिलाहट और पतिको पा लेनेको बेचैनीका जो चित्र हेमविजयसूरिने खीचा है, दूसरा नही खींच सका। हर्षकीतिकी 'नेमिनाथ राजुल गोत' भी एक सुन्दर रचना है। इसमे भी नेमिनाथको पा लेनेकी बेचैनी है, किन्तु वैसी सरस नहीं, जैसी कि हेमविजयने अंकित की है।' ____ कवि भूधरदासने नेमीश्वर और राजुलको लेकर अनेक पदोंका निर्माण किया है। एक स्थानपर तो राजुलने अपनी मांसे प्रार्थना की है, 'हे मां! देर न करो, मुझे शीघ्र ही वहां भेज दो, जहाँ हमारा प्यारा पति रहता है। यहां तो मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता, चारों ओर अंधेरा-ही-अंधेरा दिखाई देता है। न जाने नेमिरूपी दिवाकरका प्रकाश्यमान मुख कब दिखाई पड़ेगा। उनके बिना हमारा हृदयरूपी अरविन्द मुरझाया पड़ा है ।"२ पियमिलनकी ऐसी विकट १.इसी ग्रन्थका दूसरा अध्याय, हेमविजय । २. मां विलंब न लाव पठाव तहाँ री, जहं जगपति पिय प्यारो। और न मोहि सुहाय कछु अब, दीसे जगत अंधारो री मां विलंब ॥१॥ मै श्री नेमि दिवाकर को कब, देखो बदन उजारो। बिन पिय देखें मुरझाय रह्यो है, उर अरविंद हमारोरीमा विलंब ॥२॥ भूधरदास, भूधरविलास, कलकत्ता, १३वाँ पद, पृ० ८ ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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