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________________ तुलनात्मक विवेचन १७७ कृतियोके तन्त्रात्मक रहस्यवादमे गुह्य समाजको विकृति नहीं आ पायी है। जैन हिन्दी कवि और कबीर आदि सन्तोंके रहस्यवादमै अन्तर यह है कि जैन रहस्यवादियोंको आत्मा अनुभूतिके द्वारा ब्रह्ममे लीन नहीं होती, क्योकि वह ब्रह्मका एक खण्ड अश नहीं है। वह स्वयं ब्रह्म हो जाती है, जब कि कबीरकी आत्माको एक अंश होनेके कारण, ब्रह्मरूप अंगोमे मिल जाना होता है । यद्यपि दोनोका ब्रह्म घटमे विराजमान है, किन्तु एकका ब्रह्म जीवात्माका ही शुद्ध रूप है, जब कि दूसरेका जीवात्मासे भिन्न तत्त्व ।। ___यहां प्रश्न यह है कि आत्मा ही 'अनुभूत तत्त्व' और 'अनुभूति कर्ता' दोनों कैसे हो सकती है। इसका उत्तर जैन आचार्योके द्वारा निरूपित आत्माके तीन भेदोंमे उपलब्ध होता है। 'बहिरातमा' वह है, जो ब्रह्मके स्वरूपको नहीं देख सकता, पर द्रव्यमे लीन रहता है और मिथ्यावन्त है । 'अन्तरातमा'मे ब्रह्मको देखनेकी शक्ति तो उत्पन्न हो जाती है, किन्तु वह स्वयं पूर्ण शुद्ध नहीं होता। 'परमातमा' आत्माका वह रूप है, जिसमे शद्ध स्वभाव प्रकट हो गया है, और जिसमे सब लोकालोक झलक उठे हैं। रहस्यवादमे आत्माके दो ही रूप काम करते है: एक तो वह. जो अभी परमात्मपदको प्राप्त नहीं कर सका है और दूसरा वह, जो परमात्मा कहलाता है। पहलेमे 'बहिरातमा' और 'अन्तरातमा' शामिल है और दूसरेमे केवल 'परमातमा'। पहला 'अनुभूतिकर्ता' है और दूसरा 'अनुभूति तत्त्व'। कबीरने ब्रह्मके सौन्दर्यको केवल घटके भीतर तक ही सीमित रखा है, जब कि जैन कवियोंके ब्रह्मके सौन्दर्यसे प्रकृतिका कण-कण प्रकाशित हो रहा है। जायसी १. मिलाइए, "जैनधर्ममे आध्यात्मिक-अनुभवसे मतलब एक विभक्त आत्माका एकत्वमे मिल जाना नहीं है, किन्तु उसका सौमित व्यक्तित्व उसके सम्भावित परमात्मका अनुभवन करता है।" परमात्मप्रकाश, Introduction, हिन्दी अनुवाद, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री कृत, पृ० १०५। २. बहिरन्तः परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु । उपेयात्तत्र परमं मध्योपायाद् बहिस्त्यजेत् ॥ आचार्य पूज्यपाद, समाधितन्त्र, वोर सेवा मन्दिर दिल्ली, ४था श्लोक। ३. बहिरात्मा शरीरादो जातात्मभ्रान्तिरान्तरः। चित्तदोषात्मविभ्रान्तिः परमात्माऽतिनिर्मलः॥ वही, पाँचवॉ श्लोक। ६१
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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