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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि इस भांति जैन कवि और कबीर आदि सन्तोने समानरूपसे तीर्थभ्रमण, चतुर्वर्णी व्यवस्था, माला फिराना और सिर मूडना आदिका खण्डन किया, किन्तु जैसी अक्खड़ता और मस्ती कबीर आदि सन्तोंमे थी, जैन कवियोमे नहीं। जैनोंने विधायक दृष्टिको मुख्य माना और कबीरने निषेधात्मकको। इसी कारण उनकी बानियोंमें कड़वाहट अधिक है। इसके अतिरिक्त निर्गुनिए साधु बाह्य पक्षको दृष्टिसे कोरे थे, किन्तु जैन सन्त कवियोंकी न तो बानी अटपटी थी और न भाषा विशृंखल । उनका भावपक्ष सबल था, तो बाह्य पक्ष भी पुष्ट था। रहस्यवाद
यदि आत्मा और परमात्माके मिलनकी भावात्मक अभिव्यक्ति हो रहस्यवाद है, तो वह उपनिषदोंसे भी पूर्व जैन-परम्परामे उपलब्ध होती है। यजुर्वेदमे ऋषभदेव और अजितनाथको गूढवादी कहा गया है। प्रो० आर० डी० रानाडेने अपनी पुस्तक 'मिस्टीसिज्म इन महाराष्ट्र' मे लिखा है कि जैनोंके आदि तीर्थंकर ऋषभदेवने अपनी शुद्ध आत्माका साक्षात्कार कर लिया था और वे एक भिन्न ही प्रकारके गूढ़वादी पुरुष थे। डॉ० ए० एन० उपाध्येने भी 'परमात्मप्रकाश' की भूमिकामे ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ आदि तीर्थंकरोंको गूढवादी कहा है।
अपभ्रंश साहित्यकी 'परमात्मप्रकाश', 'पाहुड़दोहा' और 'सावयधम्म दोहा' नामकी प्रसिद्ध कृतियाँ रहस्यवादी कही जाती है। डॉ. हीरालाल जैनने उनपर आचार्य कुन्दकुन्दके 'भावपाहुड़' का प्रभाव स्वीकार किया है। अर्थात् उन्होंने लिखित रूपमे जैन रहस्यवादका प्रारम्भ वि० सं० की पहली शतीसे माना है। 'भावपाहुड़ से प्रभावित होनेपर भी अपभ्रंशकी कृतियोंमे योगात्मक रहस्यवादका स्वर प्रबल है, जब कि 'भावपाहुड़' मे भावात्मक अभिव्यक्तिको प्रमुखता है । मध्यकालीन जैन हिन्दी काव्य दोनों हो से प्रभावित है, किन्तु उसमें भावात्मकता अधिक है और तन्त्रात्मकता कम । यद्यपि उसमे तन्त्रवादियोके शब्द और प्रयोग मिलते हैं, किन्तु अपभ्रंशकी अपेक्षा बहुत कम । चाहे अपभ्रंश हो या हिन्दी, जैन
1. R. D. Ranade, Myrticirm in Maharashtra, Aryabhushan __Pressoffice, shanwar Peth, Poona. 2, Page-9, 2. Parmatma. Prakasa. and yogasara, dr. A. N. upobhye
edited, Parama-sruta-Prabhavaka-Mandala,' Bombay, 1937, introduction, P. 39. ३. पाहुड़दोहा, डॉ. हीरालाल जैन सम्पादित, कारंजा, १९३३ ई०, भूमिका, डॉ. हीरालाल लिखित, पृ० १६ ॥