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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि धूलो धूसरो कडि किंकिणी सरो। णिरुब मलोलउ कीलइ बालउ ॥
-महापुराण कहाँ लौं बरणौं सुन्दरताइ, खेलत कुँअर कनक आंगन में, नैन निरखि छबि छाइ । कुलहि लसति सिर स्याम सुभग भति, बहुविधि सुरंग बनाइ । मानो नवधन ऊपर राजत, मघवा धनुष चढ़ाइ। अति सुदेश मृदु हरत चिकुर मन, मोहन मुख बगराइ । खंडित वचन देत पूरन सुख, अल्प अल्प जलपाइ । घुटुरन चलत रेनु तन मंडित, सूरदास बलि जाइ ॥
- सूरसागर इसीको लेकर डॉ० रामसिंह तोमरने लिखा है, "अत: हम संक्षपमे कह सकते है कि हिन्दीको सभी काव्य-पद्धतियोंका स्पष्ट स्वरूप हमे जैन कवियों-द्वारा प्राप्त हुआ है।" 'आभ्रंश-दर्पण' में तो यहां तक लिखा है कि-हिन्दीका कौन कवि है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूपमे अपभ्रंशके जैन प्रबन्ध काव्योसे प्रभावित न हुआ हो । यहाँ इतनी बड़ी बात नहीं कही जा सकती। किन्तु महापुराण और सूरसागरके बाल-वर्णनोंका साम्य विचारणीय अवश्य है। दोनोके हृदयमे एक-से भाव आ सकते है, फिर भी ऐसा 'हू-बहू' नही हो सकता । यह जब होता है तो 'प्रथम' का 'द्वितीय' पर प्रभाव सिद्ध हो ही जाता है। प्रभावित होते हुए भी सूरदास पुष्पदन्तके अनुवादक नहीं थे । कृष्णके केवल 'बाल' और 'कैशोर' रूपको अपनाने के कारण, बालककी विविध मनोदशाओके निरूपणका जितना अवसर सूरदासको मिला, पुष्पदन्तको नहीं । महाकाव्यका निर्माता 'बालवर्णन' मे अधिक नहीं खप सकता । उसे कथानकके साथ आगे बढ़ जाना होता है। ___पं० रामचन्द्र शुक्लने लिखा है, "वात्सल्यरसके भीतरकी जितनी मानसिक वृत्तियों और दशाओंका अनुभव और प्रत्यक्षीकरण सूर कर सके, उतनीका और कोई नही। शायद पं० शुक्लको 'जैन हिन्दी काव्य' देखनेका समय नहीं मिला । भट्टारक ज्ञानभूषणने अपने 'आदोश्वरफागु आमेरशास्त्रभण्डारको हस्तलिखित
१. डॉ० रामसिंह तोमर, जैन साहित्यकी हिन्दी साहित्यको देन, प्रेमी अभिनन्दन
ग्रन्थ, पृष्ठ ४६८। २. प्रो० श्री जगन्नाथ राय शर्मा अपभ्रंशदर्पण, पृष्ठ २५ । ३ भ्रमरगीतसार, द्वितीय संस्करण, काशी, भूमिका, पृष्ठ २।