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जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष
प्रति' मे आदिनाथकी बालदशाओंको चित्रवत् उपस्थित किया है। बालक आदीश्वर पालनेमे पड़ा हुआ सो रहा है, किन्तु बीच-बीचमें कभी आंख खोलकर देखता है, कभी रो उठता है और कभी अपने चंचल हाथोसे हार मोड़ अथवा तोड़ देता है।
"आहे क्षिणि जोवइ क्षिणि सोवह रोवह लही लगार ।
प्रालि करइ कर मोडइ ब्रोडइ नक्सर हार ॥१०३॥" भट्टारक ज्ञानभूषण एक सामर्थ्यवान् कवि थे । बाल-भगवानके पैरोंमे स्वर्णके धुंघरू पड़े है । जब वह लड़खड़ाते डगोंसे चलते है, तो उनमे-से 'घ्रण-घ्रण' की मधुर ध्वनि फूटती है, जिसे सुनकर नृपति और माँ मरुदेवी दोनो ही को अपार प्रसन्नता होती है।
"आहे घण घण धुंधरी बाजइ हेम तणी विहु पाइ।
तिम तिम नरपति हरखइ मरुदेवी माइ ॥१०॥" ___ यहाँ 'घूघरी' और 'घ्रण-घ्रण' ने समूचे दृश्यको ही उपस्थित कर दिया है । 'चूंघरू' का लघुरूप 'घूघरी' लघु बालकके उपयुक्त ही है । उसमे-से निकलनेवाली ध्वनिके लिए 'घ्रण-घ्रण के प्रयोगसे चित्र जीवन्त हो उठा है।
कविने बालकके शरीरको शोभाका वर्णन करते हुए लिखा है कि उसके अंगप्रत्यंग अनुपम है । बालकके मस्तकपर टोपी विराजमान है, कानोमे कुण्डल झलक रहे है । देखनेवाला ज्यों-ज्यों देखता है, उसका हृदय अधिकाधिक आह्लादित होता जाता है । अर्थात् दर्शक तृप्तिका अनुभव नहीं करता।
"आहे अंगोय अंगि अनोपम उपम रहित शरीर । टोपीय उपीय मस्तकि बालक छइ पण वीर ॥९५॥ आहे कनिय कुंडल झलकह खलका नेउर पाउ । जिम जिम निरखड हियडइ तिम तिम भाइ ॥९॥"
प्रेमभाव
भक्ति-रसका स्थायी भाव भगवद्विषयक अनुराग है। इसीको शाण्डिल्यने 'परानुरक्तिः' कहा है। परानुरक्ति गम्भीर अनुरागको कहते है । गम्भीर अनु१. आमेर शास्त्रभण्डारकी हस्तलिखित प्रतिपर, रचनाकाल वि० सं० १५५१
दिया है। २ शाण्डिल्य भक्तिसूत्र, गीताप्रेस गोरखपुर, २२, पृष्ठ १ ।