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________________ ३८२ हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि राग ही 'प्रेम' कहलाता है। चैतन्य महाप्रभुने रति अथवा अनुरागके गाढ़े हो जाने को ही 'प्रेम' कहा है । 'भक्तिरसामृत सिन्धु' मे भी लिखा है, “सम्यङ्मसृणितस्वान्तो ममत्वातिशयाङ्कितः । भाव: स एव सान्द्रात्मा बुधै. प्रेम निगद्यते ॥" * 'प्रेम' दो प्रकारका होता है— लौकिक और अलौकिक । भगवद्विषयक अनुराग अलौकिक प्रेम अन्तर्गत आता है । यद्यपि भगवान्‌का अवतार मानकर उसके प्रति लौकिक प्रेमका भी आरोपण किया जाता है, किन्तु उसके पीछे अलौकिकत्त्र सदैव छिपा रहता है । इस प्रेममे समूचा आत्म समर्पण होता है और प्रेमके प्रत्यागमनकी भावना नही रहती । अलौकिक प्रेमजन्य तल्लीनता ऐसी विलक्षण होती है कि द्वैतभाव ही मृत हो जाता है, फिर 'प्रेम' के प्रतीकारका भाव कहाँ रह सकता है। नारियाँ प्रेमकी प्रतीक होती है । उनका हृदय एक ऐसा कोमल और सरस शाला है, जिसमें प्रेम-भावको लहलहानेमे देर नहीं लगती । इसी कारण भक्त भो कान्ताभावसे भगवान्की आराधना करनेमे अपना अहोभाग्य समझता है । भक्त 'तिय' बनता है और भगवान् 'पिय' । यह दाम्पत्यभावका प्रेम, जैन कविओकी रचनाओमे भी उपलब्ध होता है । जैन साहित्यके ख्यातिलब्ध कवि बनारसीदासने अपने 'अध्यात्म गीत' मे आत्माको नायक और सुमति को उसकी पत्नी बनाया है । पत्नी पतिके वियोग मे इस भांति तड़प रही है जैसे जलके बिना मछली । उसके हृदयमे पति से मिलनेका चाव निरन्तर बढ़ रहा है। वह अपनी समता नामको सखीसे कहती है कि पति दर्शन पाकर मैं उसमे इस तरह मग्न हो जाऊँगी, जैसे बूंद दरिया में समा जाती है । मैं अपनपा खोकर पिय सूं मिलूंगी, जैसे ओला गलकर पानी हो जाता है । अन्तमे पति तो उसे अपने घटमे ही मिल गया, और वह १. साधन-भक्ति हइते हय रतिर उदय । भक्ति गाढ़ हइले तार प्रेम नाम कय ॥ भक्ति घन कृष्णे प्रेम उपजय चैतन्य चरितामृत, कल्याण, भक्ति अंक, वर्ष ३२, अंक १, पृष्ठ ३३३ | २. श्री रूप गोस्वामी, भक्तिरसामृतसिन्धु, गोस्वामी दामोदर शास्त्री सम्पादित, अच्युतग्रन्थमाला कार्यालय, काशी, वि० सं० १९८५, प्रथम संस्करण, १|४|१ | ३. मैं विरहिन पिय के आधीन । त्यों तलफों ज्यों जल बिन मीन ॥३॥ हो मगन मैं दरशन पाय । ज्यों दरिया मे बूंद समाय ||९|| पियको मिलो अपनपो खोय । ओला गल पाणी ज्यों होय ॥१०॥ बनारसीविलास जयपुर, १६५४ ई० अध्यात्मगीत, पृष्ठ १५६ - १६० ।
SR No.010193
Book TitleHindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremsagar Jain, Kaka Kalelkar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages531
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size41 MB
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