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जैन भक्ति-काव्यका भाव-पक्ष
चेष्टाओंका सरस चित्र खींचा गया है। 'अंजना सुन्दरी रास' मे अंजनाका बालवर्णन भी हृदयनाही है। बालिका सीता, मणिमय आँगनमें बैठी अपने सुआयत नेत्रोसे चारों ओर देख रही है, किन्तु जब पिता जनकपर नजर पड़ती है, तो उसके होंठोपर मीठी मुसकराहट इस भांति छिटक जाती है, जैसे किसी भक्तके हृदयको दिव्य ज्योति ही हो। खम्भोमे पड़ते उसके मुख-कमलके प्रतिबिम्बने कमलोकी माला ही रच दी है। अंजनाको तो उसके मां-बाप उंगली पकड़कर चलना सिखाते है, किन्तु वह बार-बार गिर जाती है। वह भोली आँखोसे पिताकी ओर देखती है और वे उसको चूमकर गोदमे उठा लेते है ।
यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि जैन हिन्दी कवियोंके बाल-रससम्बन्धी चित्रोंपर सूरदासका प्रभाव है। इसके दो कारण है-पहला तो यह है कि सूरसागरमे गर्भ और जन्मोत्सवोकी उस शैलीका यत्किचित् भी दर्शन नहीं होता, जो जैन काव्योमे प्रमुख रूपसे अपनायी गयी है। सूरने कृष्णके जन्मको आनन्द बधाईके उपरान्त ही 'यशोदा हरि पालने झुलावै' प्रारम्भ कर दिया है । यह जन्मोत्सव लोकके बीच वैसे आनन्दको सृष्टि न कर सका, जैसा कि जैन काव्योंमें हुआ है। यद्यपि जैन कवियोके इन उत्सव-चित्रोमे परम्परानुगतता अधिक है, मौलिकता कम, फिर भी एक ऐसा आकर्षण है, जो सदैव चिर-नवीन बना रहेगा। दूसरा कारण है, हिन्दीके जैन भक्ति-साहित्यपर जैन-संस्कृत और अपभ्रंश काव्योंका प्रभाव । हिन्दोके अधिकांश चरित्र-ग्रन्थ ऐसे है, जो संस्कृतके अनुवाद-मात्र है। भूधरदासका 'पार्श्व-पुराण' एक मौलिक काव्य है, किन्तु उसके वर्णन भी संरकृतसाहित्यसे अनुप्राणित है। अतः जैन हिन्दोके बाल-रसके पीछे उसकी अपनी परम्परा है । सम्भव है उसका सूरदासपर भी प्रभाव पड़ा हो। स्वयम्भूके 'पउम चरिउ' और पुष्पदन्तके 'महापुराण' मे वर्णित बाल-वर्णनके कतिपय पद्य सूरके बाल-वर्णनसे मिलते है । महाकवि पुष्पदन्त ( ई० सं० ९५९ ) के 'महापुराण' मे बालक ऋषभदेवका बाल-सौन्दर्य, सूरदास (वि० सं० १५४०) के सूरसागरमे वर्णित बालक कृष्णसे बिलकुल मिलता हुआ है।
सेसवलीलिया कोलमसीलिया । पहुणा दाविया केण ण माविया ॥ धूली धूसरु ववगय कडिल्लु । सह जायक विलकोंतलु जडिल्लु ॥ हो हल्लरु जो जो सुहं सुअहिं । पई पणवंतउ भूयगणुं ॥ णंदइ रिज्झइ दुक्किय मलेण । का सुवि मलिगुण ण होइ मणु ॥ १. रायचन्द, सीताचरित्र, जैनसिद्धान्तभवन आराकी हस्तलिखित प्रति, १२१२६,
पृष्ठ ११ । २. अंजनासुन्दरीरास, जैनसिद्धान्तभवन आराकी हस्तलिखित प्रति, २।३५, पृष्ठ ४३ ।