________________
हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि "मलन बेटा जायो रे साधो, मूलन बेटा जायो रे । जानै खोज कुटुंब सब खायो रे, साधो मूलन बेटा जायो रे ॥ जन्मत माता ममता खाई, मोह लोम दोइ माई। काम क्रोध दोइ काका खाये, खाई तृषना दाई ।। पापी पाप परोसी खायो, अशुभ करम दोइ मामा । मान नगर को राजा खायो, फैल परो सब गामा । दुरमति दादी खाई दादो मुख देखत ही मूओ। मंगलाचार बधाये बाजे, जब यो बालक हूओ ।। नाम धर्यो बालक को भोंदू, रूप वरन कछु नाहीं।
नाम धरते पांडे खाये कहत बनारसि भाई ॥" जैन साहित्यमें अनेक स्थानोंपर बालकोंके तेजस्वी रूपका वर्णन है। बालवर्णनोंमें उनकी तेजस्विताका भी निरूपण होता रहा है। महाकवि कालिदासने अपने 'शाकुन्तलम्' में दुष्यन्तके पुत्र भरतका ऐसा ही एक तेजस्वी चित्र खींचा है। यद्यपि आगे चलकर 'श्रीमद्भागवत' की मुख्यताने बालकके मधुरतापरक रूपको ही प्रधानता दी, किन्तु वह परम्परा भी रुकी नहीं। सत्तरहवीं शताब्दीके प्रसिद्ध कवि ब्रह्मरायमल्लने 'हनुवन्तचरित्त' का निर्माण किया था, उसमे बालक हनुमान्का ओजस्वी वर्णन है। उन्होंने लिखा है, "जब सूर्यकी भांति देदीप्यमान बालक हनुमानका जन्म हुआ, तो अन्धकाररूपी शत्रुमण्डल स्वतः ही फट गया। सिंह चाहे छोटा ही हो, अत्यधिक सूर होता है, वह बड़े-बड़े हाथियोको चकनाचूर कर डालता है। वृक्षोंसे सघन हुआ वन कितना ही विस्तृत क्यों न हो, रत्ती-भर अग्नि ही उसे जलाकर छार कर डालनेमे पूर्ण समर्थ है। क्षत्रियका बालक भी ऐसा ही अग्निके स्फुलिंगकी भाँति होता है। उसके स्वभावमे शौर्य होता है, उसे वह कभी छोड़ नहीं सकता।"' ऐसे अन्य वर्णन भी हिन्दीके जैन चरित ग्रन्थोमे अंकित है। उनमे काव्यसौष्ठव है और सरसता। बालक्रीड़ाओंके भी विविध वर्णन जैन पुराणोंमें व्याप्त है, किन्तु उनमे सूर-जैसे मनोदर्शनकी क्षमता नहीं है । बालकोंकी अन्तःप्रकृतिकी जैसी सुन्दर और स्वाभाविक व्यंजना सूर कर सके जैन-हिन्दीका कोई कवि नही।
सूरदासका जितना ध्यान बालक कृष्णपर जमा, बालिका राधापर नही। बालिकाओंका मनोवैज्ञानिक वर्णन, सीता और अंजनाके रूपमें, जैन भक्ति-काव्योंमें उपलब्ध होता है। रामचन्दके 'सीता चरित्त' में बालिका सीताकी विविध
१.ब्रह्मरायमल्ल, हनुवन्तकथा।