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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
शक्ति है, किन्तु उस सौन्दर्यको भव्यजन ही देख पाते है । सुर, नर, किन्नर, नाग और नरेन्द्र सभी भगवान्के चरणोमे झुककर अपना जन्म सफल बनाते है।
"पास जिणंद खइराबाद मंडण, हरषधरी नितु नमस्यं हो। रोर तिमिर सब हेलिहिं हरस्यूं, मनवंछित फल वरस्यं हो ॥ भुवण विसाल भविक मन मोहइ, अनुपम कोरणि सोहइ हो ।
सुर नर किंनर नाग नरेसर, पणमइ प्रह सम पाया हो ।।" नगर खैराबादके पार्व जिनेन्द्रका रूप, नेत्र और मन दोनोंको ही अच्छा लगता है। उनके दर्शन करने-मानसे ही मनकी सभी अभिलाषाएँ ऐसे पूरी हो जाती हैं, जैसे मानो वे कल्पवृक्ष ही हों। कोई उन भगवान्से, स्वर्ण-तिलकधारिणी लक्ष्मीकी याचना क्या करे, वह तो स्वयं ही भगवान के चरणोंमें स्थित होकर झुकी रहती है । शान्तिरंग गणिने भी उन भगवान्को प्रणाम किया है, उन्हें विश्वास है कि ऐसा करनेसे सुख दिन-प्रति-दिन बढ़ता ही जायेगा,
"इय पास जिणवर नयण मणहर, कप्पतरुवर सोहए। श्री नयर खयराबाद मंडण, भविए जणमण मोहए ।। श्री कनक तिलकु सुसीस सुंदर, लिक्ष्मी विनय मुणीसरो। तसु सीस गणि भांतिरंग पभणइ, हवइ दिन-दिन सुखकरो ॥"
२७. श्री गुणसागर (विक्रमको १६वीं शताब्दीका उत्तरार्ध)
श्री गुणसागरकी रचना 'पार्श्वजिनस्तवन' भी उपर्युक्त गुटकेमें ही निबद्ध है इस आधारपर उनका समय भी वि० सं० १६२६ से पूर्व माना जा सकता है। उनकी दूसरी कृति 'शान्तिनाथस्तवन', जयपुरके ठोलियोके जैन मन्दिरमें गुटका नं० ९७ में अंकित है।
श्री गुणसागरकी दोनों ही कृतियां भक्तिसे सम्बन्धित है। पहलीमे भगवान् पार्श्वनाथकी, और दूसरीमें भगवान् शान्तिनाथको स्तुति की गयी है ।
'पार्श्वजिनस्तवन' एक दर्शन-स्तोत्र है। इसमें भगवान पार्श्वनाथके दर्शनोकी महिमा बतलायी गयी है। भगवान्की भक्तिमें विभोर होते हुए कविने लिखा है कि पार्श्व-जिनेन्द्रके दर्शनोंपर न्यौछावर हो जाइए। उनके दर्शनोंमे मन रंग लो
और गीत गाओ। भगवान्के दर्शन सभी संकटोंको-चाहे वे मार्ग, घाट और उद्यान में उत्पन्न हुए हों, अथवा नागपाशके कारण आये हों, उपशम करनेमें समर्थ हैं । केवल विकट संकट और कष्ट ही शान्त नही होते, अपितु बड़े-बड़े
१. राजस्थानके जैन शास्त्रभण्डारोंकी ग्रन्थसूची, भाग ३, पृ० २६२ ।