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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि इसकी एक प्रतिका उल्लेख 'जैन गुर्जरकविओ' में भी हुआ है। यह प्रति श्राविका मनमांके पढ़नेके लिए की गयी थी। इसमे कुल ३३ पद्य है। _ 'मूलदेव चौपई' की रचना सं० १७११ फाल्गुनमे, नवहटमे हुई थी। यह एक ऐतिहासिक काव्य है । इसमे किन्हीं मूलदेवका वर्णन है । इसकी एक प्रतिका उल्लेख श्री देसाईजीने किया है। मिश्रबन्धु-विनोद'मे इनके द्वारा रचित 'जम्बूचरित्र' की भी बात कही गयो है।
रामचन्द्रके कतिपय पद दि० जैन मन्दिर बड़ौतके पदसंग्रह ५८ मे निबद्ध है । उनमे भक्त हृदयका प्रस्फुटन तो है ही, लालित्य और कल्पना भी है। यदि कोई भक्त आराध्यके चरण-कमलोंके प्रतापसे स्वयंको जान सके, अपूर्व ज्ञान तथा परम सुख प्राप्त कर ले, तो अत्युक्ति क्या है । जबतक उसका इष्टदेव मिला नही था, वह भव-भवमे भटकता फिरा, अब भटकनेकी क्या आवश्यकता है,
"अब जिनराज मिलिया, गुणगणधर सुन्दर अनूप । जबलौ भेद लौ नहि प्रभु को, गति गति में अति रुलिया। निद्रा मोह गई अब ही मम, ग्यान अपूरब पुलिया। दरसन करि निज दरसन पायो, सुख सत्तादिक मिलिया। चरन कमल पूजत थिरता लहि, एक अहं सुधि मिलिया। रामचन्द्र गुन बरनत ही सकल पाप टलि चलिया।"
आदि प्रभु ऋषभदेव वनमे खड़े होकर तप साध रहे हैं। उनका एकाग्र मन, शान्त दृष्टि, अलौकिक मुसकान, अपूर्व छटा बिखेर रही है। वह भक्त ही क्या, जो ऐसे रूपके दर्शन और वर्णनमे खप न सके,
"चलि जिन आदि देखें, सुर गन खग वंदित सभूप । सकल संग तजि ऋणवत् वन में नगन चिदातम पेषे । नासा ध्यान खड़े कर लंबे अनसन ऐन विसे ॥ अन्त अकाम मास षट भोजन धीर चलत भूले। धर्म तीर्थकर का कर उपरि दानी को कर पेषै । रामचन्द्र धनि दानी कहै सुररतन वृष्टि करि पेषै।"'
१. जैन गुर्जरकविप्रो, भाग २, पृ० ३०७-८ । २. वही, खण्ड २, भाग ३, पृ० १२६६ । ३.मिश्रबन्धु विनोद, माग २, पृ०४६६ । ४. पदसंग्रह ५८, पत्र २५, दि० जैन मन्दिर, बड़ौत । ५. कही।